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________________ सूत्रकताजस्त्रे ૪૮૮ 'जइ विणिगसे' इत्यादि । मूलम् जइ विणिगसे किसे चरे जइविय भुजियमासमंतसो । जे इह मायाइ मिज्जइ आगंता गभाय पंतसो ॥९॥ १२ छायायद्यपि च नमः कृशश्चरेत् यद्यपि च मुंजीत मासमन्तशः । य इह मायादिना हि मीयते आगन्ता गर्भायानन्तशः ॥९॥ कहा जा सकता है कि कोई कोई परतीर्थिक भी परिग्रह से रहित और विशिष्ट तपस्याबान् देखे जाते है, ऐसी स्थिति में उन्हें मोक्षकी प्राप्ति क्यों नहीं होती ? बिशिष्ट तपके विना मोक्ष नहीं होता, ऐसा सिद्धान्त है। तप मोक्षका कारण , ऐसा है तीर्थकरोंने भी कहा है । तपकी विद्यमानता होने से उन्हे मोक्ष क्यों नहीं होता ? यदि तपस्या के होने पर भी मोक्ष नहीं होता तो आप के शासन का अनुसरण करनेवालों को मोक्ष नहीं होना चाहिए। फिर तो मोक्ष की बात ही कहां रही। ऐसी आशंका करके कहते हैं—“जइ विणिगसे" इत्यादि। शब्दार्थ-'जे-ये' जो 'इह-इह' इसलोकमें 'मायाइ मिज्जाइ-मायादिना मीयते' कषायोंसे युक्त हैं वह 'जइविय-यद्यपि' चाहे 'णिगणे-नग्नः' नग्न अर्थात् वस्तरहित एवं 'किसे-कृशः' दुर्बल होकर 'चरे-चरेत्' विचरे 'जइविय-यद्यपि चाहे 'अंतसो-अन्ततः' अन्तपर्यन्त 'मास-मासम्' एक मासके अनन्तर 'भुंजिय એવું પણ કહી શકાય છે કે કેટલાક પરતીર્થિકે પણ પરિગ્રહણથી રહિત અને વિશિષ્ટ તપસ્યાસંપન્ન હોય છે. છતાં તેમને મોક્ષની પ્રાપ્તિ કેમ થતી નથી ? વિશિષ્ટ તપ વિના મેક્ષ નથી. એ સિદ્ધાંત છે. તપ મોક્ષનું કારણ છે, એવું તીર્થકરોએ પણ કહ્યું છે. છતાં તપને સદ્ભાવ હોવા છતાં પણ તે પરતીર્થિકોને મેક્ષ કેમ મળતું નથી? તપસ્યા કરવા છતાં પણ મેક્ષ ન મળતું હોય, તે આપના શાસનનું અનુસરણ કરનારને પણ મેક્ષ મળવો જોઈએ નહીં. એવી સ્થિતિમાં તેમને મેક્ષ પ્રાપ્ત થવાની વાતજ કેવી शते स्वीय गने! 240 शानु निवा२६१ ४२१। माटे सूत्रा२ ४ छ -"जइ विणिगसे" इत्यादि शहाथ-'जे-ये'२ 'इन-इह' मा सभा 'मायाइमिज्जइ-मायादिना मीयते' उपायथा युत छ 'जइविय-यद्यपि' या 'णिगणे-नग्नः' नागा अर्थात वर करना अवम 'किसे-कृशः' निम ने 'चरे-चरेत् ३२ 'जइबिय-यद्यपि' या अंतसोअन्ततः' मन्त पर्यन्त 'मास-मास' मनन्त सुधी-गम्भाय-गर्भाय' समास पछी શ્રી સૂત્ર કુતાંગ સૂત્ર: ૧
SR No.006305
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size37 MB
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