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________________ ३०० अन्वयार्थ : ( एवं ) एवम् = उक्त प्रकारेण ( अम्न्नाणिया) अज्ञानिकाः ज्ञानरहिता ब्रह्मणाः श्रमणाच ( सयं सयं) स्वकं स्वकं (नाणं) ज्ञानं ( वयंतावि) वदन्तोऽपि (मिच्छत्थं) निश्चयार्थ ( न जानंति) नैवजानन्ति । कथं न जानन्ति ? इत्याह-(मिलक्खुन्) म्लेच्छा इव पूर्वप्रदर्शितम्लेच्छा इव (अवोहिया) अवोधिकाः वोधरहिता सन्ति, aara ते निश्चयार्थे न जानन्तीति भावः । यथा म्लेच्छा आर्यपुरुषस्याऽभिप्रायं परमार्थतोऽजानाना एव केवलं - आर्यभाषितमेवानुभाषन्ते तथा सम्यग्ज्ञानरहिताः केचन ब्राह्मणा श्रमणाच स्वकीयं स्वकीयं ज्ञानं वदन्तोऽपि, न निश्चितार्थस्य ज्ञातारः, परस्परविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वादिति भावः || १६ || सूत्रकृताङ्गसूत्रे 'वयं ताव - वदन्तोऽपि' कहते हुये भी 'निच्छयत्थं नियार्थ' निश्चित अर्थको, न ' जाणंति न जानन्ति' नहीं जानते हैं 'मिलक्खुब्व- म्लेच्छा इव' पूर्वोक्त म्लेच्छ के तुल्य 'अवोहिया - अबोधिकाः' बोधशून्यही है || १६ || ---अन्वायार्थ--- श्रमण अपने अपने ज्ञान का जानते हैं। क्योंकि ये सब 1 हुए इसी प्रकार ये अज्ञानी ब्राह्मण और बखान करते हुए भी निश्चित अर्थ को नहीं पूर्वोक्त म्लेच्छ के समान अबोहिया, अबोध हैं । जैसे म्लेच्छ आर्य पुरुष के अभिप्राय को वास्तविक रूप से नहीं जानते केवल आर्य पुरुष के भाषण का अनुकरण ही करते हैं समझते कुछ नहीं सिर्फ ज्यों के त्यों शब्द उगल देते हैं, उसी प्रकार ज्ञान हीन ये ब्राह्मण और श्रमण अपने अपने ज्ञान का प्रतिपादन करते हुए भी निश्चित अर्थ के ज्ञाता नहीं हैं । ज्ञाता होते तो एक दूसरे से विरूद्ध प्ररूपणा क्यों करते ? ||१६|| -दन्तोऽपि' उवा छतां पशु 'निच्छयत्थ - निश्चयार्थ" निश्चित अर्थाने 'न जाणति--न जोनन्ति' लता नथी. 'मिलक्खुण्व - म्लेच्छाइन' पडेसां उहेसा सेच्छोनी प्रेम 'अबोदिन अबोधिकाः' मोध विनानाक छे. ॥१६॥ -अन्वयार्थ - . શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૧ એજ પ્રમાણે અજ્ઞાની બ્રાહ્મણા અને શાયાદિશ્રમણા પેત પેતાના જ્ઞાનના વખાણુ કરવા છતાં પણ નિશ્ચિત અર્થાથી અનભિજ્ઞ જ હોયછે, કારણ કે તેએ પૂર્ણાંકત મ્લેચ્છના જેવા અમેધ છે. જેવી રીતે આ પુરુષના વચનેાના ભાવા નહીં સમજવા છતા પણપૂવા કત મ્લેચ્છ તેમણે (આ પુરુષ) ઉચ્ચારેલા વચનોનુ વાર વાર ઉચ્ચારણ કરતા હતા એજ પ્રમાણે જ્ઞાનહીન મા બ્રાહ્મણેા અને શાકયાદિ શ્રમણે તેએ ધમ તત્વના યથાર્થ સ્વરૂપથી અજ્ઞાત જ હામ છે. જો તેઓ જ્ઞાતા હોય, તે પરસ્પર વિરોધી પ્રરૂપણા શા માટે કરત? ॥૧૬॥
SR No.006305
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size37 MB
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