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________________ समयार्थ बोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.१ उ. २ मिथ्यादृष्टिनियतिवादिनां मतनिरूपणम् २५५ तदेव बन्धनं नियतिवादिनां मते नास्ति इति इदानीं प्रदर्श्यते । तदेवं विविधसंबन्धेन संप्राप्तस्यास्योद्देशकस्येदमादिमं सूत्रम्-‘आघायं पुण' इत्यादि । . . मूलम्आघायं पुण एगेसि उववण्णा पुढो जिया । वेदयंति सुहं दुक्खं अदुवा लुपंति ठाणओ॥१॥ -छायाआख्यातं पुनरेकेषामुपपन्नाः पृथगजीवाः । वेदयन्ति सुखंदुःखं अथवा लुप्यन्ते स्थानतः ॥१॥ अन्वयार्थ:(पुण) पुनः-पूर्वोक्तचार्वाकादिमतकथनानन्तरं पुनः (एगेसिं) एकेषां= केषांचिद्वादिनाम् । (अघायं) आख्यातं-कथनम् अस्ति यत् (जिया) जीवाः । (पुढो) पृथक् पृथगेव-भिन्न भिन्नगतौ (उववण्णा) उपपन्नाः समुत्पन्नाः सन्तः मत में नहीं हैं, यह बात अब प्रदर्शित की जाती है। इस प्रकार अनेक सम्बधों से प्राप्त इस उद्देशे का यह आदि सूत्र है-"आघायं पुण' इत्यादि । शब्दार्थ-'पुण-पुनः' चार्वाक आदि के मतकथन के अन्तर 'एगेसि-एकेषां' किन्हींका 'आधाय-आख्यातम्' कहना है 'जीया-जीवा' जीव 'पुढो-पृथक' अलग अलग 'उववण्णा-उपपन्नाः' उत्पन्नहोकर 'सुहं दुक्ख-सुख दुःख' सुख दुःखको 'वेदयति-वेदयन्ति' भोगते हैं 'अदुवा-अथवा' अथवा ठाणओ-स्थानतः' अपने अपने उत्पतिस्थान से 'लुप्पति-लुप्यन्ते' अन्यत्र जाते हैं अर्थात् मृत्युको पा लेते हैं ॥१॥ -:अन्वयार्थः-- पूर्वोक्त चार्वाक आदि मतों के कथन के पश्चात् फिर किन्हीं वादियों का कथन है कि जीव पृथक् पृथक् ही उत्पन्न होकर पृथक पृथक् रूपसे આ બન્ધને માનતા નથી. એજ વાત હવે પ્રદર્શિત કરવામાં આવે છે. પહેલા ઉદ્દેશક સાથે 20 प्रा२ना अने सभी घरात मीon उद्देशनु प सूत्र या प्रमाणे छे. "आघायं पुण" त्याह शहाथ-'पुण-पुन:' या विगेरे ना भतर्नु ४थन या पछी 'एगेसिं-एकेषां' अन्यना मतनु 'आधा-आख्यतम्' ४थन ४२खु छे. 'जीया-जीवाः' को 'पुढो-पृथक् ॥ ॥ छ. 'उवषण्णा-उपपन्नाः' उत्पन्न थईने 'सुह दुक्ख-सुख दुःख' सुप दुमने 'वेदयं ति-वेदयन्ति' लागवे छे. 'अदुवा-अथवा' अथवा 'ठाणओ-स्थानतः' पातपाताना उत्पत्तिस्थानथी 'लुप्पंति-लुप्यन्ते' मी तय छे. अर्थात् मृत्यु पामे छे. ॥१॥ અન્વયાર્થ – પૂર્વોક્ત ચાર્વાક આદિ મતની માન્યતા કરતાં ભિન્ન માન્યતા ધરાવતા કેટલાક મતવાદિઓ એવું પ્રતિપાદન કરે છે કે જે અલગ અલગ જ ઉત્પન્ન થઈને શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્રઃ ૧
SR No.006305
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size37 MB
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