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________________ मङ्गलाचरणम् समयार्थबोधिनी टीका गत्यर्थस्य मगि धातो रलच् प्रत्यये कृते मङ्गलमिति रूपं निष्पद्यते मंग्यते साध्यते हितं मोक्षादि अनेनेति मङ्गलम्, तादृशं मङ्गलं साक्षात् क्रियासंवलितं ज्ञानमेव यतस्तादृशेन ज्ञानेनैवाशेषकर्मक्षयात्मकमोक्षजननात्, परंपरया तीर्थकरस्तदागमश्चोभावपि मङ्गलं, ज्ञानद्वारेण तयोरपि मोक्षं प्रति प्रयोजकत्वात् । __ अथवा मंगो-धर्मस्तं लाति-इति मङ्गलम्, अर्थात् धर्मस्योपादाने कारण यत् तन्मंगलम् , ला आदाने इति धातोमैगलपदव्युत्पत्तेस्तथा च धर्मोपादान कारणं यद् भवति तन्मंगलमिति । अथवा मं गालयतीति मङ्गलम् अर्थात् मं संसारप्रथम पद से ज्ञान का कथन किया गया है । ज्ञान संसार और संसारके कारणों का विनाशक है, अतएव उसका कथन मंगलरूप ही है। गति अर्थवाले "मगि" धातु से “अलच्" प्रत्यय करने पर “मंगलम्" ऐसा रूप निष्पन्न होता है। जिसके द्वारा हित मोक्षादि साधा जाता है वह मंगल कहलाता है। ऐसा मंगल साक्षात् क्रियायुक्त ज्ञान ही है, क्योंकि इस प्रकार के ज्ञान के द्वारा ही समस्त कर्मों का क्षय रूप मोक्ष उत्पन्न होता है। परम्परा से तीर्थकर भगवान् और उनका आगम दोनों मंगल हैं। क्योंकि ज्ञान के द्वारा वे दोनों भी मोक्ष के प्रति उपयोगी होते हैं। अथवा 'मंग' अर्थात् धर्म को जो लावे वह मंगल कहलाता है। अभिप्राय यह हुआ कि धर्म के उपादान में जो कारण हो वह मंगल है "ला" धातु आदान के अर्थ में है, इस प्रकार "मंगल" पद की व्युत्पत्ति मानने से जो धर्म का उपादान कारण हो वह "मंगल" कहलाता है। अथवा जो 'म' જ્ઞાનનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. સંસાર અને સંસારનાં કારણેનું વિનાશક જ્ઞાનને ગણવામાં આવે છે, તેથી તેનું કથન મંગળરૂપ જ છે. गति “मगि" धातुने “अलच्” प्रत्यय मापाथी “मंगलम्" મંગલમ્ પદ બન્યું છે. જેના દ્વારા હિત (મોક્ષાદિ) સાધી શકાય છે, તેનું નામ ‘મંગળ’ છે. એવું મંગળ સાક્ષાત્ ક્રિયાયુક્ત જ્ઞાન જ છે, કારણ કે આ પ્રકારના જ્ઞાન દ્વારા જ સમસ્ત કર્મોનો ક્ષય રૂપ મેક્ષ ઉત્પન્ન થાય છે. પરંપરાથી તીર્થકર ભગવાન અને તેમના આગમ, બને મંગલ રૂપ જ છે, કારણ કે જ્ઞાન દ્વારા તે બને મોક્ષ સાધવામાં ઉપયેગી થઈ પડે છે. अथवा- "मंग" मेट भ. धमन २ मा तेनु नाम मत छ. ॥ કથનને ભાવાર્થ એ છે કે...... “ધર્મના ઉપાદાનમાં જે કારણરૂપ હોય છે તેને भी छ, "ला" धातु माहानना सभा ५५राय छे. 'मन' पहनी मा શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૧
SR No.006305
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages709
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sutrakritang
File Size37 MB
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