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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू. १ अ. १३ परक्रियानिषेधः ___९३५ संश्लेषकारिणीम् 'नो तं सायए' नो नैव खलु ताम् आध्यात्मिकीम् साश्लेषिकीश्च परक्रियां साधुः आस्वादयेत् 'अभिषेत्, मनसा तत्राभिलाषं न कुर्यादित्यर्थः, एवं 'नो तं नियमे नो-नैव वा तां-तथाविधां परक्रिया नियमयेद-कायेन वचसा वा कारयेदिति भावः मनसा वचसा कायेन वा तां परक्रियां नानुमोदयेदित्यर्थः सम्प्रति तां परक्रियां विशेषतो दर्शयितुमाह- से सिया परो पाए आमजिज्ज वा पमज्जिज्ज वा तस्य-प्रतिकर्मरहित शरीरस्य साधोः स्यात्-कदाचित्, परः-गृहस्थः श्रद्धया पादौ रजसाऽवलिप्तौ आमृज्याद लिये की जाती हुई क्रिया बन्धन के कारण होने से 'नो तं सायए' उस को साधु आस्वादन नहीं करे अर्थात मन से उस परक्रिया को साधु अभिलाषा नहीं करे और 'नो तं नियमे' एवं वचन से उस परक्रिया को न करावे, अर्थात् मन वचन और शरीर से उस परक्रिया का अनुमोदन साधु नहीं करें क्यों कि उक्त रीति से उपर्युक्त परक्रिया को मन से चाहने पर या काय तथा वचन से समर्थन करने पर कर्मबन्धन होता हैं इसलिये संयमशील साधु और साध्वी को मन वचन और काय से परक्रिया का अनुमोदन या समर्थन नहीं करना चाहिये क्यो कि कर्मबन्धन को दूर करने के लिये हो जैन मुनि महात्माओं ने प्रव्रज्या ग्रहण की है इसलिये साधु और साध्वी ऐसा किसी भी परक्रिया का समर्थन नहीं करें जिस से कि कर्मबन्ध हो, अब विशेष रूप से परक्रिया का प्रदर्शन करते हैं-'से सिया परो पाए आमजिज वा' उस प्रतिकर्मरहित शरीरवाले साधु के यदि कदाचित पर अर्थात गृहस्थ श्रावक श्रद्धा भक्ति से धूलि वगैरह से लिप्तपादों का आमार्जन करे या અર્થાત્ કર્મ બંધનરૂપ સંશ્લેષને કરવા વાળી હોવાથી આધ્યાત્મિક અને સંશ્લેષિકી કહે છે. કહેવાને હેતુએ છે કે-ગૃહસ્થ શ્રાવક દ્વારા શારીરિક વ્યાપાર રૂપે સાધુને માટે કરવામાં मावती या मन। ४।२९१ ३५ पाथी 'नो तं सायए नो तं नियमे' साधुसे भनथी એ પરક્રિયાની અભિલાષા કરવી નહી. અને કાય અર્થાત્ શરીરથી અને વચનથી એ પરકિયાને કરાવવી નહીં અર્થાત્ મન, વચન અને શરીરથી એ પરક્રિયાનું સાધુએ અનુમોદન ४२ नही. 'से सिया परो पाए आमजिज्ज वा पमज्जिज्ज वा' तथा ७५२४१ ५२ક્રિયાને મનથી ચાહવાથી અથવા કાયથી તથા વચનથી સમર્થન કરવાથી કમબંધ થાય छे. तेथी 'नो तं सायए नो तं नियमे' साधु भने साये मन पयन मन यही પરક્રિયાનું અનુદન કે સમર્થન કરવું નહીં કારણ કે કર્મબંધને દૂર કરવા માટે જ જૈન મુનિઓએ સાધુપણ સ્વીકારેલ છે. તેથી સાધુ અને સાઠવીએ એવી કોઈ પણ પરિક્રિયાનું સમર્થન કરવું નહીં કે જેનાથી કર્મબંધ થાય. विशेष प्राथी ५२ठिया मताव छ-'से सिया परो पाए आमज्जिज्ज वा पमः ज्जिज्ज वा' से प्रतिम २हित शरीरवाणा साधुना धूम विगेश्था ५२७।येस पार्नु ५२ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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