SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 932
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ स्. ३ अ. ११ शब्दासक्तिनिषेधः विक्षेपयतो वा इतस्त-प्रक्षेपं कुर्वतो वा 'विगोवयमाणाणि वा' विगोप्यमानान् वा-प्रसिद्धिं कुर्वतो वा 'अन्नयराई तहप्पगाराई' अन्यतरान् वा तथाप्रकारान् ‘विरूवरूवाई महूस्सपाई' विरूपरूपान्-अनेक प्रकारान् महोत्सवान्-महोत्सवप्रयुक्तशब्दान् 'कण्णसोयणपडियाए' कर्णश्रवणप्रतिज्ञया-श्रोतुमिच्छया 'नो अभिसंधारिजा गमणाए' नो अभिसंधारयेद्-नो मनसि संकल्पं कुर्यादि गमनाय-गन्तुम् न विचारयेद् ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा अशनादि चतुर्विध आहार जात को वितरण अर्थात् परोसते हुए या 'विच्छडियमाणाणि वा' इधर उधर विक्षेप प्रक्षेप करते हुए याने अशनादि चतुर्विध आहार जात को परस्पर में इधर उधर दूसरे की ओर रंगरभस में या हंसी मखौल में फेंकतेहए या 'विगोवद्यमाणाणि वा' विगोपन अर्थात् प्रसिद्धि करते हुए या 'अन्नयराइंवा तहप्पगाराई अन्य दूसरे भी इस प्रकार के विरूवरूवाइं महस्सवाइं' विरूपरूपवाले अनेक तरह के महोत्सवों के शब्दों को 'कण्णसोयणपडियाए' कानों से सुनने की इच्छा से 'नो अभिसंधारिजा गमणाए' उपाश्रय से बाहर किसी भी दूसरे स्थानो में जाने के लिये जैन मुनि महात्माओं को मन में संकल्प या विचार भी नहीं करना चाहिये क्योंकि इस प्रकार के अनेक महोत्सव के शब्दों को सुनने से मुनि महात्माओं का भी मन विचलित हो सकता है और सांसारिक विषयवासना बढ़ सकती है जिस से संयम की विराधना हो सकती है इसलिये आत्म कल्याण करनेवाले जैन साधु और जैन साध्वी को इस प्रकार के महो त्सव प्रयुक्त नाना प्रकार के शब्दों को सुनने के लिये मन में संकल्प भी नहीं करे और तदनुसार सुनने के लिये उपाय से बाहर कहीं भी नहीं जाय।। अब इस ग्यारहवां अध्ययन के अन्त में उपसंहार करते हुए बतलाते हैंअथवा परिभाय ताणि वा' अशनाहि यतुविध मारने १२सता तथा 'विच्छडियमाणाणि वा' माम तम भूत देता अथवा 'विगोवयमाणाणि वा' मनायतुविध माहारने એક બીજા આમ તેમ એકબીજાની તરફ મશ્કરીમાં ફેંકતા કે છૂપાવતા કે પ્રસિદ્ધ કરતા मथ 'अन्नयराई तहप्पगाराइ विरूवरूवाइ महूस्सवाई" lon५ मापा मारना भने शतना महोत्सवाना होने 'कण्णसोयणपडियाए' हानाथा समान २छाथी 'नो अभिसंधारिज्जा गमणाए' पाश्रयनी महा२ ३६ ५५ मी स्थानमा वा माटे मुनिय। એ મનમાં સંકલ્પ કે વિચાર પણ કર નહીં કેમકે-આવા પ્રકારના અનેક મહત્સ ના શબ્દોને સાંભળવાથી મુનિઓના પણ મન ચલિત થવા સંભવ છે અને સાંસારિક વિષયવાસનામાં આસક્તિ થાય છે તેથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી આત્મ કલ્યાણ કરવાવાળા સાધુ અને સાધ્વીએ આવા પ્રકારના મહત્સવમાં થનારા અનેક પ્રકારના શબ્દોને સાંભળવાને મનમાં વિચાર પણ કરવું નહીં તથા તે સાંભળવાની ઈચ્છાથી ઉપાશ્રયની બહાર પણ જવું નહીં. आ० ११६ श्री मायारागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy