SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 834
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - मर्मप्रकाशिका टीका तस्कंध २ उ. २ सू. ६ सप्तम अवग्रहप्रतिमाध्ययननिरूपणम् ८२३ मन्यमानः प्रतिगृह्णीयात् 'अतिरिच्छच्छिन्नं तहेव' अतिरथीनच्छिन्नम् न तिर्यक् छिन्नम् अन्तरिक्षुप्रभृति इक्षुडालपर्यन्तम् तथैव - पूर्वोक्तसचित्ता म्रफळालापकरीत्यैव सचित्तत्वात् अप्रासुकं मन्यमानो नो प्रतिगृह्णीयात् एवमेव पूर्वोक्ततिरश्चीनच्छिन्ना म्रफलालापकरीत्या तिरश्रीनच्छिन्नान्तरिक्षुकप्रभृतीनामपि अचित्तत्वात् तत् प्रासुकं मन्यमानः प्रतिगृह्णीयादिति भावः । अथ आमवात जडीकृतकलेवरादि आपत्काले साधूनामग्राह्यमपि लशुनं वा तत्सदृशौषधिविशेषमधिकृत्य तद् विषयकमवग्रहं प्ररूपयितुमाह-' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'अभिकंखिज्जा ल्दसुणवणं उवागच्छित्तए' अभिकाङक्षेत्-वातादिरोगग्रस्तदशायां लशुनवनम् तत्सदृशमौषधिविशेषवनं वा उपागन्तुम् तर्हि 'तहेव तिन्नि वि आलाबमा ' तथैव - पूर्वोक्तरीत्यैव आम्रादिविषयकालापवत् त्रयोऽपि लशुनादिर्विषयका आलापकाः नहीं है तथा लतातन्तु मकरे के जालपरम्परा से संयुक्त नहीं है ऐसा जानकर या देखकर इस प्रकार के अण्डा वगैरह के सम्पर्क से रहित गन्ने का पर्व मध्य भाग वगैरह को अचित्त होने से प्रासुक अचित्त समझते हुए और एषणीय - आधाकर्मादि दोषों से भी रहित समझते हुए ग्रहण करलेना चाहिये किन्तु 'अतिरिच्छछिन्नं तहेव, तिरिच्छ छिन्नं तहेब' जो इक्षु पर्व वगैरह तिर्यक् छिन्न नहीं है उसको पूर्वोक्त सचित्त आम्रफल विषयक आलापक के समान ही सचित्त होने से अप्रासुक सचित समझते हुए नहीं ग्रहण करना चाहिये किन्तु जो गन्ने का पर्व वगैरह तिरछा काटा या चीरा फाडा हुआ है उस को अचित्त होने से प्रासु अचित्त समझकर खालेना चाहिये क्योंकि अचित्त sters वगैरह को खाने से संयम की विराधना नहीं होती । अब वातव्याधि वगैरह से पीडित दशा में आपत्काल होने से साधुओं के लिये और साध्वी के लिये अग्राह्य लशुन वगैरह का ग्रहण बतलाते हैं-' से भिक्खु वा भिक्खुणी वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी જોઇને આ રીતે ઇંડા વિગેરેના સંપર્ક વિનાના સેલડીના મધ્યભાગ વિગેરેને અચિત્ત હાવાથી પ્રાણુક અચિત્ત સમજીને તથા એષણીય આધાકર્માદ્રિ ષાથી પણુ રહિત સમજીને थरी क्षेत्री, परंतु 'अतिरिच्छछिन्नं तद्देव' ले सेबडीना सांडा विगेरे तिर्यई छिन्न ન હૈાય તેને પૂર્વોક્ત સચિત્ત કેરી વિષયક આલાપકની જેમ જ સચિત્ત હૈાવાથી અપ્રાसुम सत्ति समने ग्रहण ठरवी नहीं' तथा 'तिरिच्छछिन्नं तद्देव' ले शेझडीना सांठा વિગેરે તિર્થાં કાપેલ કે ચીરેલ હૈાય તે તે અચિત્ત હેાવાથી પ્રાપુક-અચિત્ત સમજીને ગ્રહણ કરી લેવા. કેમ કે—અચિત્ત સેલડીના સાંઠા વિગેરેને ખાવાથી સયમની વિરાધના થતી નથી. હવે વાતવ્યાધિ વિગેરે પપૈડાવાળી અવસ્થામાં આપત્કાળ હાવાથી સાધુ અને સાધ્વીને अग्राह्य ससाणु विगेरेने रवा उथन मेरे छे.- से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते यूर्वोक्त संयमशील साधु भने साध्वी ने वातव्याधिती अवस्थामां औषध३ये 'अभिकंखिज्जा શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy