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________________ - - - - मर्मप्रकाशिका टीका तस्कंध २ उ. २ स. ५ सप्तम अवप्रहप्रतिमाध्ययननिरूपणम ८०७ पर्यन्तं तावन्मात्रक्षेत्रपर्यन्तमेव 'उग्गहं उग्गिहिस्सामो' अग्रहम्-अवग्रहीष्यामः 'तेण परं विहरिस्तामो' तेन परम्-ततः परम् तदनन्तरमित्यर्थः विहरिष्यामः-विहारं करिष्यामः 'से किं पुण तत्थ उग्गहंसि एवोग्गहियंसि' स-साधुः किं पुनः तत्र अवग्रहे अवगृहीते सति कुर्यादित्याकाङ्क्षायामाह -'जे तत्य समगाण वा' ये तत्र श्रमणा:-वर कशाक्यप्रभृतयः अन्यतीथिकाः साधवः स्युः तेषां वा चरकशाक्यप्रभृतिश्रमणानां वा 'माहणाण वा' ब्राम णानां वा 'अतिहिकिवणवणीमगाणं वा' अतिथिकृपणचनीपकानां वा-अभ्यागतदीनदरिद्र. याचकानां 'छत्तए वा जाव चम्मछेदणए वा' छत्रकं वा स्यात्. यावत्-चमच्छेदनक-नखकतरिकारूपं वा स्यात् 'तं नो अंतोहितो बहिं नीणिज्जा' तत्-छत्रादिकम् नो अन्तरत:अर्थात वे दसरे साधर्मिकमनि महात्मा जब आयेंगे 'तेण परं विहरिस्सामो' तव हम लोग वहां से चले जायेंगे 'से किं पुण तत्थ उग्गहंसि एवोग्गहिसि' वहां अवग्रह का स्वीकार करके वह साधु वहां क्या करें सो कहते हैं 'जे तत्थ समणाण वा' जो अन्यतीर्थिक चरक शाक्य वगैरह अन्यतीर्थिक साधु श्रमण और 'माहणाण वा' ब्राह्मण तथा 'अतिहिकिवणवणीमगाणं वा ब्राह्मण अतिथि दीन दुःखी गरीब याचक गणों के 'छत्तए वा जाव चम्मछेदणए वा' छत्र-छाता यावत् चमेछेदनक नहरनी कैंची वगैरह को 'तं नो अंतोहितो यहि नोणिज्जा बहियाओ वा नो अंतो पविसिज्जा' हम लोग अन्दर से बाहर या बाहर से अन्दर नहीं करेंगे अर्थात् उन अन्यतीर्थिक अतिथि अभ्यागतों के छत्र चमरा नहरनी कैंचो वगैरह को उलटा पुलटा नहीं करेंगे और यथावत् ही रहने देंगे और 'सुत्ते वा नो पडिपो. हिज्जा' सोते हुए उन अतिथि अभ्यागतों को नहीं जगावेगें 'नो तेसि किंचिति अपत्तियं एवं उनको अप्रीतिजनक कोई भी खराब व्यवहार या वर्तन हमलोग नहीं करेंगे इस प्रकार प्रतिज्ञा कर क्षेत्रावग्रह रूप द्रव्यावग्रह की याचना करे अन्यथा इस तरह की प्रतिज्ञा के बिना ही द्रव्यावग्रह की याचना करके उन अतिथिशाला वगैरह में ठहरने से यदि उन अन्यतीर्थिक श्रमण वगैरह के छत्रादि सामग्री को भुनि एंति' भावरी नहीं ये सामि मुनिवर न्यारे साप. 'ताव उग्गह उगि हिस्सामो' त्या सुधीन। म१यनी यायना शमे छीथे, सो मन्य साधमि साप भारी. त्यारे 'तेण पर बिहरिस्सामो' सभी मा स्थानमा विहार A से कि पुण तत्थ उग्गहंसि एवोग्गहियसि' त्यां अपना स्वी॥२ री ते साधुणे त्यां शु. ४२१ ते ४ छे. 'जे तत्थ समणाण वा' त्या रे सन्यता २२४ सय विरे भन्यता साधु श्रम मने 'माहणाण का' ब्राह्मण तथा 'अतिहि किवणवणीमगाणं वा' भतिथि मात दीन, ६२द्र तथा यायना 'छत्तए वा जाव चम्मछेदणए वा ७३ यावत् यम छैन , नरे०ी तर विगेरेने 'तं नो अंतोहितो बहि नीणिज्जा' में हरयी मा२ रीशु नही' तथा 'बहियाओ वा नो अंतो पविसिज्जा' महारथी २ सावी श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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