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आचारांगसूत्र
तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं' एतत् खलु विचार्य अवग्रहग्रहणं तस्य भिक्षुकस्य भिक्षुक्याश्च सामग्र्यम्-समग्रता सम्पूर्णः आचारो बोध्यः 'जं सबढेहिं समिए सहिए सया जइज्जासि' यत् सर्वाथैः सम्यग ज्ञानदशेनवारित्रैः समित्या पञ्चभिः समितिमिस्त्रिगुप्त्या च सहितः सदा यतेत-यतनापूर्वकं वतेत 'तिबेमि' इति ब्रवीभि-कथयामि-उपदिशामि इत्यर्थः 'उग्गहपडिमाए पढमो उद्देसो' अग्रहप्रतिमायां प्रथमः उद्देशः समाप्तः ॥ मू० ४॥
मूलम्-से आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अणुवीइ उग्गहं जाइजा,जे तत्थ ईसरे जे तत्थ सम'एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खूणीए वा सामग्गियं संयम का पालन करने वाले साधु मुनि महत्मा को इस प्रकार के शङ्गार युक्त उपाश्रय में रहने के लिये क्षेत्रावग्रह की याचना नहीं करनी चाहिये, यही संयम का अच्छी तरह पालन करना ही संयमशील साधु और साध्वीका सामय्य है अर्थात् साधुता की सामाचारी है 'जं सव्वहिं समिए सहिए' जिस साधुता सामाचारी को सम्यक ज्ञान दर्शन चारित्र से और पांच समितिओं से और तीन गुप्तियों से युक्त होकर 'सया जइ. ज्जासि तिबेमि' हमेशां पालन करने के लिये यतना पूर्वक वर्तना चाहिये क्योंकि साधु मुनि महात्माओं का और साध्वी का संयम पूर्वक रहना ही जीवन का सर्वस्व माना गया है इसलिये संयमवान् साधु और साध्वी को संयम का पालन करने के लिये अत्यन्त सावधान रहना चाहिये ऐसा भगवान वीतराग महावीर स्वामीने गौतमादि गणधरों को उपदेश दिया है यह बात सुधर्मा स्वामी कहते हैं। यह 'उग्गहपडिमाए पढमो उद्देसो समत्तो' अवग्रह अर्थात् क्षेत्रावग्रह रूप द्रव्या वग्रह याचना की प्रतिमारूप प्रतिज्ञा का पहला उद्देशक समाप्त हो गया ॥सू.४॥
सप्तम अध्ययन के क्षेत्रावग्रह का प्रथम उद्देशक समाप्त । श्रयमा २॥ भोट क्षेत्रायडनी यायना ४२वी नी । शत 'एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं' सयमनु सारी ते पासन ४२ ४ सयमशील साधु भने सावीनु सामय छे. अर्थात् साधुनी सामायारी छ. 'जं सव्वदेहिं समिए सहिए सया जइज्जासि तिबेमि' हे साधुना सामायारीने सभ्य ज्ञान ६शन यात्रियी मने पाय સમિતિ તથા ત્રણ ગુપ્તિથી યુક્ત થઈને સદા સર્વદા પાલન કરવા માટે યતના પૂર્વક તત્પર રહેવું જોઈએ. કેમ કે સાધુ મુનીએ તથા સાથીએ સંયમ પૂર્વક રહેવું એજ જીવનનું સર્વસ્વ માનવામાં આવેલ છે. તેથી સંયમશીલ સાધુ અને સાધવીએ સંયમનું પાલન કરવા માટે અત્યંત સાવધાન રહેવું. એમ વીતરાગ ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ કહ્યું छ. २मा पात सुधर्मा स्वामी ४ छ. 'उग्गहपडिमाए पढमो उद्देसो समन्तो' २१ म१यह अर्थात् ક્ષેત્રાવગ્રહરૂપ દ્રવ્યાવગ્રહ યાચનાની પ્રતિમારૂપ પ્રતિજ્ઞાને પહેલો ઉદ્દેશ સમાપ્ત, સૂ, કા
સાતમા અધ્યયનના ક્ષેત્રાવગ્રહને પહેલા ઉદ્દેશ સમાપ્ત.
श्री आया। सूत्र : ४