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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ.१ सू० ४ सप्तम अवग्रहप्रतिमाध्ययननिरूपणम् ८०१ वर्तनधर्मानुयोगचिन्तायै तथाविधे उपाश्रये अवग्रहो न कल्पते इत्याह-'सेवं णच्चा' ससाधुः, एवम्-उपयुक्तरीत्या गृहस्थगृहस्य मध्यमध्येन गन्तुं सम्बद्धमार्गम् उपाश्रयं ज्ञात्वा तथाप्रकारे उपाश्रये नो अवग्रहम् अवगृहीयाद् वा प्रगृह्णीयाद् वा 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षा भिक्षुकी वा 'से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा' स यत् पुनः उपाश्रयं जानीयात् 'इह खलु गाहावई वा' इह खलु-उपाश्रये गृहपतिर्वा 'गाहावइभारिया वा' गृहपतिभार्या वा 'गाहावइपुत्ते वा' गृहपतिपुत्रो वा 'गाहावइधए वा' गृहपतिदुहिता वा 'मुण्डा वा स्नुषा वा करने के लिये एवं धर्मानुयोग चिन्तन करने के लिये इस प्रकार के यावतगृहस्थ श्रावक के कुल के मध्य भाग से जाने के लिये उपाश्रय के मार्ग को जानकर 'सेवं णच्चा जाव' इस तरह के उपाश्रय में रहने के लिये एक बार या अनेक बार क्षेत्रावग्रह रूप द्रव्यावग्रह की याचना नहीं करे क्योंकि इस प्रकार के गृहस्थ श्रावक के घर के मध्य भाग से जाने का मार्गवाले उपाश्रय में रहने से गृहस्थ आवक के स्त्री कन्या वगैरह से सम्पर्क होने की संभा. वना से संयम की विराधना होगी इसलिये इस तरह के उपाश्रय में रहने के लिये याचना नहीं करे। ___ अब फिर भी अत्यन्त सावधान करने के लिये क्षेत्रावग्रह का ही निरूपण करते हैं-'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा, से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु मुनि महात्मा और भिक्षुकी साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से उपाश्रय को जान ले की 'इह खलु गाहावई वा' इस उपाश्रय में या इस उपाश्रय के निकट में गृहपति-गृहस्थ श्रावक लोग या 'गाहावईभारिया वा' गृहपति की भार्या या 'गाहावई पुत्ते वा' गृहपति का पुत्र या 'गाहावई धूए वा' गृहपति की कन्या या 'सुण्हा वा' गृहपति की पुत्रवधू या 'जाव कम्मकभाटे यावत् 'सेव णच्चा जाव' मा ४२ना यावत् २५ श्रावन धनी मध्यमाथी જવા આવવા માટે ઉપાશ્રયને માર્ગ આવતા હોય તે તેવા પ્રકારના ઉપાશ્રયમાં રહેવા માટે એકવાર કે અનેકવાર ક્ષેત્રાવગ્રહ રૂપ દ્રવ્યાવગ્રહની યાચના કરવી નહીં કેમ કે ગૃહસ્થ શ્રાવકના ઘરની વચમાં થઈને જવાના રસ્તાવાળા ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી ગૃહસ્થ શ્રાવકની સ્ત્રી કે કન્યા વિગેરેને સંપર્ક થવાની સંભાવનાથી સંયમની વિરાધના થાય છે તેથી આવા પ્રકારના ઉપાશ્રયમાં રહેવા માટે યાચના કરવી નહીં. शथी पधारे सावधान २१॥ क्षेत्रावन ४ नि३५९१ ४२ छ.-'से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वात सयमशीस साधु ने साध्वी से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा' या पक्ष्यमा शत पाश्रयने से इह खलु गाहावई वा' 241 उपाश्रयनी पासे श्राव। 24240 'गाहावई भारिया वा' गृहस्थ श्रा१४नी स्त्री ५५ 'गाहावई पुत्ते वा' पति पुत्र 4041 'गाहावईधूए वा' हुपतिनी पुत्री मया 'सुण्हा वा' गृह. आ० १०१ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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