SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 811
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - आचारांगसूत्रे सोदके स क्षुद्रपशुभक्तपानयुक्ते 'नो उग्गहं उगिहिज्ज वा पगिव्हिज्ज वा' नो अवग्रहम् अवगृहीयाद् वा प्रगृह्णीयाद वा सकृद् वा असकृद वा ससागरिकादौ उपाश्रये अवग्रहं गृहीयादित्यर्थः । ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'से जं पुण उक्स्सयं जाणिज्जा' स-साधुः यत् पुन: उपाश्रयं जानीयात् 'गाहावइकुलस' गृहपतिकुलस्य-गृहस्थ गृहस्य 'मझ मज्झेण' मध्यमध्येन 'गंतु पंथे पडिबद्धं वा गन्तुम् पन्थाः प्रतिबद्धः-सम्बद्धो वर्तते 'नो पण्णस्त नाव नो प्राज्ञस्य साधोः यावत्-निष्क्रमणप्रवेशाय वाचनानुपच्छापाउवस्सए ससागारिए' गृहम्थ श्रावक वगैरह से सम्बद्ध उपाश्रय को जान कर 'जाव नो उग्गहं उगिहिज्ज वा, परिगिहिज्ज वा' उस में रहने के लिये विवेकी साधु एकबार या अनेक बार क्षेत्रावग्रह रूप द्रव्यावग्रह की याचना नहीं करें क्योंकि गृहस्थ श्रावक एवं कुत्ते विल्ली अग्निकाय जीव वगैरह से सम्बद्ध उपाश्रय में रहने से संयम की विराधना होगी इसलिये संयम पालन करने वाले जैन साधु मुनि महात्माओं को इस प्रकार के उपाश्रय में रहने के लिये याचना नहीं करनी चाहिये फिर भी दूसरे ढंग से क्षेत्रावग्रह रूप द्रव्यावग्रह का ही निरूपण करते हैं- से भिक्खूवा, भिक्खुणी वा से जंपुण उवस्सयं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रूप से उपाश्रय को जान लेकि 'गाहावइ कुलस्स मज्झंमज्झेण गंतुं' गृहपति-गृहस्थ श्रावक के घर के मध्य मध्य भाग से जाने के लिये 'पंथे पडिबद्धं वा उपाश्रय का मार्ग प्रतिबद्ध-सम्बद्ध है तो 'नो पण्णस्स जाव' प्राज्ञ-विवेकी साधु महात्मा उपाश्रय से निकलने और उपाश्रय में प्रवेश करने के लिये तथा आगमशास्त्र वगैरह को वाचने के लिये एवं परस्पर एक दूमरे को पूछने के लिये एवं आवर्तन युत पाश्रय oneha 'तहप्पगारे उवस्सए ससागारिए' मा निपास ४२१॥ मोटे विवी साधुसे मे४वार 3 भने वार क्षेत्राव३५'जाव नो उग्गहं उग्गिव्हिज्ज वा परिगिहिज्ज वा' દ્રવ્યાવગ્રહની યાચના કરવી નહીં. કેમ કે-ગૃહસ્થ શ્રાવક અને કુતરા, બિલાડા કે અગ્નિકાય વિગેરે જીવોથી યુક્ત ઉપાશ્રયમાં રહેવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંયમનું પાલન કરવાવાળા જૈન મુનિઓએ આવા પ્રકારના ઉપાશ્રયમાં રહેવા માટે યાચના કરવી નહીં. शथी ५५ ५४२-तरथी । क्षेत्रा ३५ द्रव्याखनु ४थन ४२ छ.- ‘से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूरित सयभशा साधु भने साया 'से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा' ले १६यमा प्राथी पाश्रयने समरे -'गाहावइकुलस्स मझं मज्झणं' पति अर्थात शस्थ श्रा१ना घरनी वयमांथी 'गतुं पंथे पडिबद्धं वा' । माटे उपाश्रयन। भाग संबधित छे. 'नो पण्णस्स जाव' तो विवशी साधुये उपाश्रयमाथी नी300 તથા ઉપાશ્રયમાં પ્રવેશ કરવા માટે અને આગમને અધ્યયન માટે તથા પરસ્પર એક બીજાને પૃચ્છા કરવા માટે તથા આવર્તન કરવા માટે તેમજ ધર્માનુગ ચિંતન કરવા श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy