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मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ सू. ३ षष्ठ पात्रैषणाध्ययननिरूपणम् ७७७ ग्राह्यं कीदृशश्च पात्रं न ग्राह्यमित्येवं विवेचनं तस्य संयमवतो भिक्षुकस्य भिक्षुक्याश्च 'सामग्गियं' सामग्रयम्-समग्रता-सम्पूर्ण आचार इति 'जं सव्वटेहिं समिए सहिए सया जएज्जासि' यत् सर्वार्थ:-सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रैः समित्या पञ्चभिः समितिभिस्त्रि गुप्त्या च सहितः सन् सदा यतेत-यतनापूर्वकमेव साधूनामाचारः सर्वदा परिपालनीयः 'त्तिवेमि' इति ब्रवीमिअहं गणधरं कथयामि उपदिशामीत्यर्थः ‘पाएसणा सम्मत्ता' इति पात्रैषणा समाप्ता ॥ ३॥ इतिश्री विश्वविख्यात जगद्वल्लभादिपदभूषित बालब्रह्मचारि जैनाचार्य पूज्यश्री घासीलाल व्रतिविरचितायां श्री आचारांगसूत्रस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य मर्मप्रकाशिकाख्यायां
____व्याख्यायां पात्रैषणाध्ययनं नाम षष्ठम् अध्ययनं समाप्तम् ॥६॥ चाहिये 'एयं खलु तस्स' यही पात्र विषयक विवेचन अर्थात् किस प्रकार का पात्र साधु को चाहिये किस प्रकार का पात्र नहीं चाहिये इस तरह का निरूपण करना ही 'भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं' उस संयमशील साधु और साध्वी का सामग्य है अर्थात् साधु सामाचारी है याने साधु का आचार विचार है 'जं सव्वटेहिं समिए सहिए' जिस को सम्यक ज्ञान दर्शन और चारित्र से तथा पश्च समिति और तीन गुप्ति से युक्त होकर यतना पूर्वक ही 'सया जए ज्जासित्तिबेमि' साधु और साध्वी को आचार का परिपालन करना चाहिये ऐसा भगवान् वीतराग महावीर स्वामीने गणधरों को कहा है यह सुधर्मा स्वामी कहते हैं. 'पाएसणा समत्ता' पात्रैषणा समाप्त हो गई, और षष्ठ अध्ययन भी समाप्त हो गया ॥३॥
श्रीजैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलाल व्रतिविरचित ___ आचारांगसूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध की मर्मप्रकाशिकाव्याख्या में
छट्ठा पात्रैषणा अध्ययन समाप्त हुआ ॥६॥ भानु पात्र साधुणे २।मन । प्रानुन राम 'एयं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा' से तनु नि३५४४ ४२७ मे मे सयमशील साधु भने सावन 'सामग्गिय' साभय छे. अर्थात् साधु सामायारी छ, थेट साधुन। माया छे. 'जं सव्वदे॒हिं समिए सहिए सया जएज्जासि' ने सभ्य ज्ञान, शन, मन यास्तिथी तथा પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિથી યુક્ત થઈને યતના પૂર્વક જ સાધુ અને સાધ્વીએ मायानु पासन ४२७ मे. 'त्तिबेमि' 0 रीते मवान् महावीर स्वाभीमे धरान
युं छे. २मा रीते सुधा स्वामी ४९ छे. 'पाएसणा समत्ता' ६५२४त १२थी पाषाणानु 3थन सभात थयु. ।। सू. 3 ॥ જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રી ઘાસીલાલજી મહારાજ વિરચિત “આચારાંગસૂત્રના બીજા શ્રુતસ્કંધની મર્મપ્રકાશિકા વ્યાખ્યામાં છ પાવૈષણ અધ્યયન સમાપ્ત મારા आ० ९८
श्री सागसूत्र :४