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________________ ७६८ आचारांगसूत्रे प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य प्रतिलेखनं कृत्वा 'पमज्जिय पमज्जिय' प्रमृज्य प्रमृज्य पौनः पुन्येन रजोहरणादिना प्रमार्जनं विधाय 'तो पच्छा संजयामेव आमज्जिज्जा' ततः पश्चात् संयत. मेव-यतनापूर्वकमेव आमृज्यात् 'एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं' एवं खलु-उक्तरीत्या यतनां कुर्वतः तस्य भिक्षुकस्य भिक्षुक्याश्च सामग्र्यम्-सम्पूर्णसाधु. त्वाचारः 'जं सबढेहिं समिए सहिए सया जएज्जा' यत् सर्वार्थ:-सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रः समित्या-पञ्चभिः समितिभिस्त्रि गुप्त्या च सहितः युक्तः सन् सदा यतेत-'तिवेमि' इति ब्रवीमि-उपदिशामि इति षष्टाध्ययनस्य पात्रैषणायाः प्रथमादेशः समाप्तः सू० १॥ इसलिये 'तहप्पगारंसि थंडिलंसि' दग्ध स्थंडिल वगैरह प्रदेश में 'पडिलेहिय पडिलेहिय' प्रतिलेखन करके और प्रमार्जन करके उसके बाद यतना पूर्वक ही आमार्जन करे अर्थात् रजोहरणादि से 'पमज्जिय पमज्जिय' बार बार प्रमार्जन करके ही 'तओ पच्छा संजयामेव आमजि ज्जा' संयता पूर्वक उसपात्रको अच्छी तरह आमार्जन करना चाहिये 'एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा सामग्गियं उक्तरीति से यतना करते हुए उस भिक्षुक और भिक्षुकी का सामग्र्य सम्पूर्णता साधुता अर्थात् सामाचारि समझनी चाहिये अर्थात् यदि यतनापूर्वक ही साधु और साध्वी पानादि का प्रमार्जन करते हैं तो उनकी साधुना की सम्पू. णता समझा जाता है 'जं सव्वहिं समिए' जिसको सर्वार्थों से अर्थात् सम्यक ज्ञानदर्शन चारित्रों से और 'सहिए सया जएज्जा त्तिबेमि' पांच समिति और तीन गुप्तियों से युक्त होकर संयम पालन करने के लिये हमेशां यतना करनी चाहिये ऐसा भगवान् महावीर स्वामी गौतमादि गणधरों को उपदेश दिया है यहवात सुधर्मा स्वामी कहते हैं । सू० १॥ ___ यह छटा अध्ययन के पात्रैषणा का प्रथम उद्देशक समास हो गया भात होषोपाय पाथी सयभनी विराधना याय छे. तथा 'तहप्पगारंसि थंडिलंसि' ४२५ स्यसि वोरे प्रदेशमा 'पडिलेहिय पडिलेहिय' प्रतिमन रीन मने 'पमज्जिय पमज्जिय' प्रभा ना ४ीने 'तओ पच्छा' ते पछी 'संजयामेव आमज्जिज्जा' संयम पूर्व १४ मे पात्रने सारी ते मामा भने प्रभार ४२. 'एवं खलु तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए वा' से प्रमाणे यतना ४२॥ ४२i 2 साधु भने साथीनु 'सामग्गिय" સામગ્રય અર્થાત્ સંપૂર્ણપણું અર્થાત્ સાધુપણું એટલે કે સામાચારી સમજવી. અર્થાત્ યતના પૂર્વક જ સ ધુ અને સાવ પાત્રાદિની પ્રાર્થના કરે છે. એ તેના સાધુપણાની सपूत। सभी 'जं सबढेहिं समिए सहिए सया जएज्जा तिबेमि' २२ साथी અર્થાત્ સમ્યક જ્ઞાન, દર્શન અને ચારિત્રીથી તથા પાંચ સમિતિ અને ત્રણ ગુપ્તિથી યુક્ત થઈને સંયમનું પાલન કરવા સદા સર્વદા યતના પૂર્વક ઉઘુક્ત રહેવું જોઈએ. એમ ભગવાન મહાવીર સ્વામીએ ગૌતમાદિ ગણધરોને ઉપદેશ આપેલ છે. આ વાત સુધર્મા સ્વામી કહે છે, આ રીતે આ છઠ્ઠા અધ્યયનને પાત્રપણુ નામને પહેલે ઉદ્દેશક સમાપ્ત. ૧૩ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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