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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ सू० २५ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् ६१ वा' आकरे वा ताम्ररजतसुवर्णाद्युत्पत्तिरूपे आकरे वा, संखडिः संमवति एवं 'दोणमुहंसिवा' द्रोणमुखे वा जलस्थलोभयमार्गाधिष्ठिते स्थानविशेषरूपे द्रोणमुखे वा संखडिः संभवतीत्यर्थः एवं "णिगमंसिवा' नैगमे वा, वणिकूस्थानरूपे नैगमेवा संखडेः संभवोस्ति, एवम् 'आसमंसि वा' आश्रमे वा, संन्यासिनाम् आश्रमे वा संखडिः संभवति, एवं 'रायहाणिसि वा' राजधान्यां वा, राज्ञः अवस्थानभूतायां राजधान्यां वा संखडिः संभवति, एवं 'जाव संणिवेसंसि वा' यावत् सग्निवेशे वा, पुष्कलभाण्डावस्थानस्थलरूपे सनिवेशे वा 'संखर्डि' संखडि प्रीतिभोजनरूप सुस्वामिष्टानादिकं ज्ञात्वा 'संखडिपडियाए' संखडिप्रतिज्ञया सुस्वादुयो जनरूप संखडिलाभाशयेन 'जो अभिसंधारिज्जा गमणाए' नो अभिसंधारयेद् गमनाय, तत्र गन्तुं मनसि संकल्परूपमभिसंधारणं साधुन विदध्यातू, तदथ गमनं न कुर्यादित्यर्थः, एवं साध्वी अपि ग्रामादौ संखडिलामार्थ गमनं न कुर्यादिति भावः । इति विशेष रूप मडम्ब में एवं 'पट्टणंसिवा' पत्तनेवा-जहां कि जल तथा स्थल दोनों मार्गों से यातायात होता हो ऐसे णगर विशेष रूप पत्तन में एवं 'आगरंसिया' तांबा सोना चांदि वगैरह की उत्पत्ति का स्थान विशेषरूप खान में या 'दोण मुहंसिवा' द्रोणमुखे वा-जल स्थल दोनों रास्ते से युक्त स्थानविशेषरूप द्रोणमुख में तथा 'णिगमंसिवा' नैगमेवा-वणिक् का स्थान विशेषरूप नैगम में या आसमंसिवा' अश्रमेवा-संन्यासी वगैरह के स्थान विशेषरूप आश्रम में अथवा 'जावसंणिबेससिवा' यावत् इसी प्रकार के अन्य स्थानों में या संनिबेश-श्रीमंत विगैरह का निवासस्थान या यात्रालु का निवाल रूप संनिवेश में 'संखडिं' संखडिम्-प्रीति भोजरूप सुस्वादुमिष्टान्नादिको जानकर 'संखडिपडियाए' प्रीतिभोजन वगैरह संखडिरूप मिष्टान्नादि के लाभ की आशा से 'णो अभिसंधारेजा गमणाए' संखडि में जाने के लिये साधु और साध्वी को नहीं विचार करना चाहिये और जाना भी नहीं चाहिये क्योंकि केवली वूया-आयाणमेयं' केवली ब्रूयात् केवली वीतराग भगवान तीर्थ कर कहते हैं कि 'आदानम् एतत् यह संखडि स्थान तथा 'पट्टणंसि वा' या सस्था सन्न भाग था अ१२४१२ थती हाय मेवा नगर विशेष ३५ पत्तनम तथा 'आगरंसि वा' मा यो सोना याहीनी सत्पत्ती यती डाय ते। स्थानमा मथा 'दोणमुहंसि वा' ४४ २५ मन्न २.ताथा युद्धत स्थान विशेष द्रोभुमम तथा 'णिगमंसि वा' पाना निवास स्थान ३५ निगमाम तथा 'आसमंसि पा' साधु सन्यासी विगेरेना निवास स्थान३५ पाश्रममा २५२१'जाव संणिवेसंसि वा' प्रारे न२ ५७२ श्रीमते ना निवास स्थान या याना निवासस्थान निवेशमा 'संखडिं' प्रीति३५ सा॥ स्वाहा। मिष्टानाहिन थाने 'संखडिपडियाए' प्रीतिलागत वगैरे समी ३५ भिटाहिना खाली शाथी ‘णो अमिसंघारेज्जा गमणाए, સંખડીમાં જવા માટે સાધુ કે સાધવીએ વિચાર કરે ન જોઈએ. અને જવું પણ ન नमे. भ3-'केवलीबूया आयाणमेयं' पीत। लगवान् तय ४२ ४३ छ - श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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