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________________ ७०६ आचारांगसूत्रे 'मणी वा जाव रयणावली वा' मणि ा-पद्मरागनीलमरकतादिकम् यावत-रत्नं वा रत्नावली वा तद् वस्त्रप्रान्तेन बद्धा स्यात्, एवं 'पाणे वा बीए वा हरिए वा' प्राणो वा कश्चिद् जीव जन्तुप्राणी वा बीजं वा-अङ्कुरोपादानकारणम् हरितं वा-वनस्पतिविशेषरूपं किमपि सचित्तं बद्धं भवेत् तथा च तथाविधबद्धकुण्डलादिवस्त्रग्रहणे साधूनां संयमविराधना स्यादित्युपसंहारव्याजेनाह-'अह मिक्खूणं पुव्वोवदिहा पइण्णा' अथ भिक्षणां साधूनां साध्वीनाश्च पूर्वोपदिष्टा तीर्थकृता पूर्वम् प्रतिपादिता प्रतिज्ञा वर्तते तामेव प्रतिज्ञामाह-'जं पुवामेव वत्थं अंतो अतेण पडिले हिज्जा' यत् पूर्वमेव-ग्रहणात् प्रागेव वस्त्रम् अन्तप्रान्तेन चतुष्कोणपान्तभागेन प्रतिलेखयेत् प्रति लेखनम् सम्यग् अवलोकनं कृत्वा वस्त्रं गृह्णीयादिति भावः । सू०६॥ है एवं 'मणी वा जाव रयणावली वा' पद्मराग नीलमरकत वगैरह मणी भी बन्धा हुआ हो सकता है तथा यावत्-रत्न भी इस वस्त्र के छोड से बन्धा हुआ हो सकता है तथा रत्नावली कोई एकावली वगैरह हार भी मणिमाला रूप इस वस्त्र के छोड से बन्धा हुआ हो सकता है इसी तरह 'पाणे वा बीए वा हरिए वा कोई प्राणी जीव जन्तु कीड़े मकोडे भी बन्धे हुए होसकते हैं तथा बीज अंकुर एवं हरित वर्णवाले तृण या घास वगैरह वनस्पति भी सचित्त इस वस्त्र के अन्त प्रान्त भागमें बन्धा हुआ हो सकता है इसलिये इस प्रकार के संबद्ध कुंण्डलादि सहित वस्त्र के ग्रहण करने से जैन साधु को संयम की विराधना होगी इसलिये संयम पालन करने वाले साधु और साध्वी इस तरह के वस्त्र को प्रतिलेखन करने के बिना नहीं ग्रहण करते हैं इसी तात्पर्य से उपसंहार करते हुए कहते हैं कि 'अह भिक्खूणं पुव्वोवदिट्ठा पइण्णा, जं पुवामेव वत्थं अंतो अतेण पडिलेहिजा' अथ-इसलिये भिक्षु-संयमशील साधुओं के लिये और साध्वीओं के लिये भगवान तीर्थकर महावीर स्वामी ने पहले ही उपदेश दिया है कि-वस्त्र को ग्रहण करने से पहले ही संयमशील साधु और साध्वी उस वस्त्र को अन्त भाग तक प्रतिलेखन करके ही वस्त्र ग्रहण करना चाहिये इसलिये डाय भार सोनानी परतु ५ माधवी डाय 'मणी वा जाव रयणावली वा' ५५२।२१, નીલ, મરકત વિગેરે મણિ બાંધેલ હેય યાવત્ રત્ન પણ વસ્ત્રના છેડાથી બાંધેલ હોવાને સંભવ છે. અથવા રત્નાવલી કે એકાવલી વિગેરે હાર કે મણિમાળા આ વસ્ત્રના છેડે माधम डाय तया 'पाणे वा बीए वा हरिए वा' 10 प्राणी तु श्री भाडी ५५ આ વસ્ત્રના છેડાના ભાગમાં બંધાયેલ હોય તેથી આ પ્રકારના બંધાયેલ કુંડલાદિની સાથે વસ્ત્રને ગ્રહણ કરવાથી સાધુને સંયમની વિરાધના થાય છે. તેથી સંયમનું પાલન કરવા વાળા સાધુ અને સાધ્વીએ આ પ્રકારના વસ્ત્રને પ્રતિલેખનર્યા વિના ગ્રહણ કરવા નહીં. तथी उपडा२ ३२i सूत्र४२ ४ छे-'अह भिक्खुणं पुव्वोवदिदा पइण्णा' तेथी સંયમશીલ સાધુ અને સાધ્વીને ભગવાન તીર્થકર મહાવીર સ્વામીએ પહેલાં જ ઉપદેશ આપેલ - 'ज पुव्यामेव वत्थं अंतो अंतेण पडिलेहिज्जा' पखने sn Rdi sai ar श्रीमायागसूत्र:४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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