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________________ RE मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. २ सू० ६ चतुर्थ भाषाजातमध्ययननिरूपणम् ६४९ अकर्कशाम् अनिष्ठुराम् अप्राण्युपतापिनीम् अभूतोपघातिनीम् अभिकाङ्ख्य-मनसा पर्यालोच्य विचार्य भाषेत । __ सम्प्रति-वृक्षादिविषये अभाषणयोग्यां भाषामधिकृत्याह-'स भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा 'तहेव गंतु मुज्जाणाई पव्वयाई वणाणि वा' तथैव-पूर्वोक्तरीत्यैव गत्वा उद्यानानि पर्वतान् वनानि वा गत्वेति शेषः 'रुक्खा महल्ले पेहाए नो एवं वइज्जा' वृक्षान् महतो-विशालान् प्रेक्ष्य-दृष्ट्वा नो एवं-वक्ष्माणरीत्या वदेत् 'तं जहा-पासायजोग्गाति वा' करना चाहिये क्योंकि 'असावजं जाव' इस प्रकार की भाषा असाचा अगो अर्थात् अनिन्दनीया कही जाती है एवं अक्रिया-अनर्थ दण्ड प्रवृत्ति जनक भी नहीं मानी जाती है । तथा अकटु अकर्कश, अनिष्ठुर अप्राण्युपतापिनी तथा अभूतोपघातिनी अर्थात् प्राणियोंको उपताप नहीं करनेवाली तथा भूतों को उपघात नहीं करने वाली मानी जाती है और अत्यन्त सरल मृदु तथा मनोहर मन्जुल मानी जाती है इसलिये ऐसी युवा गौ धेनु के बारेमें रसवती वगैरह शब्दो को 'अभिकंख भासिजा' मन से विचार कर साधु और साध्वी को गाय बैल के विषय में बोलना चाहिये क्योंकि संयमनियम व्रतादि का पालन करना संयमशील साधु और साध्वी का परम कर्तव्य माना गया है इसलिये ऐसी भाषाओं का प्रयोग नहीं करना चाहिये जिस से किसी को कष्ट पैदा हो। अब माधु और साध्वी के वृक्षादि के विषय में नहीं बोलने योग्य भाषा को लक्ष्यकर बतलाते हैं-'से भिक्खू वा, भिक्खुणी वा' वह पूर्वोक्त भिक्षु-संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी-तहेव गंतुमुज्जाणाइं पव्वयाई तथैव-पूर्वोक्त रीति से ही उद्यान उपवन बगीचा में तथा पर्वोतों में एवं 'चणाणि वा' वनमें जाकर वहां पर मा! 'असावज्जं जाव' ह्या मननीय उपाय छे. मन मठिया मन प्रवृत्तिજનક પણ કહેવાતી નથી. તથા અકટુ અકર્કશ અનિષ્ફરઅપ્રાપ્યુપતાપિની તથા અભપઘાતિની અર્થાત્ પ્રાણિયેને ઉપતાપ ન કરવાવાળી તથાભૂતોને ઉપઘાત ન કરવાવાળી માનવામાં આવે છે. અને અત્યંત સરલ, મૃદુ તથા મનહર મંજૂલ કહેવાય છે. તેથી એવી યુવાગાય, રસવતી ધેનું સુંદર કૃતિ વૃષભ વિગેરે શબ્દોને મનથી વિચાર કરીને સાધુ અને સાધ્વીએ ગાય બળદના સંબંધમાં બોલવું, કેમ કે સંયમ નિયમત્રતાદિનું પાલન કરવું એ સંયમશીલ સાધુ અને સાધવનું પરમ અવિશ્યક કર્તવ્ય માનવામાં આવે છે. તેથી એવી ભાષાઓને પ્રવેશ કરે નહીં, કે જેનાથી બીજા કોઈને દુઃખ કારક થાય. હવે સાધુ અને સાધ્વીએ વૃક્ષાદિના સંબંધમાં ન બોલવા ગ્ય ભાષાને ઉદ્દેશીને ९२४२ ४थन रे थे-से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते पूरित संयमशीय साधु भने साका 'तहेव' पति शते ४ 'गंतुमुज्जाणाई' मायामा 'पव्वयाई' पाताभi तथा 'वणाणि वा' नाम 8न त्या मा10 रुक्खा महल्ले पेहाए' मोटर मोटर आत नन 'नो आ० ८२ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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