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________________ आचारांगसूत्रे नो गहनं वा वनं वा दुर्ग वा 'अणुपविसिज्जा' अनुप्रविशेत्, 'नो रुक्खंसि दृरुहिज्जा' नो वृक्षे आरोहेत, 'नो महइमहालयंसि उदयंसि' नो महतिमहालये अतिगम्भीरे अगाधे या उदके 'कायं विउसिज्जा' कार्य ब्युत्सृजेत् प्रवेशयेत् निमज्जयेद् वा 'नो वाडं वा सरणं वा सेणं वा सत्थं वा' नो वाटं वा शरणं वा सेना वा सार्थ वा-मित्रमण्डलम् 'कंखिज्जा' काइक्षेत-चाम्छेत्, अपितु 'अप्पुस्सुए जाव समाहिए' अल्पोत्सुकः अविमनस्क एव यावत्समाहितः समाधियुक्तः सन् 'तओ संजयामेव ततः तदनन्तरम् संयत एव यतनापूर्वकं 'गामाणुगाम दुइज्जिज्जा' ग्रामानुग्रामम्-प्रामाद्नामान्तरम् येत-गच्छेत्, ‘से भिक्खु वा भिक्खुणी और उस सिंह व्याघ्र आदि प्राणियों के भय से पीहर गहन जंगल में तथा वन में या दुर्ग-किला परकोरा वगैरह में अनुप्रवेश नहीं करे अर्थात् सिंहादि हिंसक घातक प्राणी के भय से साधु और साध्वी बीहर जंगल वगैरह में नहीं घुस जाय क्योंकि संयमपालन करना ही साधु और साध्वी का मुख्य कर्तव्य माना गया है इसलिये ऐसा कोई भी कर्तव्य कार्य नहीं करना चाहिये जिससे संयम पालन में बाधा हो इसी प्रकार 'नो रुक्खसि दुरुहिज्जा' सिंहादि के भय से वृक्ष पर भी नहीं चढे और 'णो महइ महालयंसि उदयंसि' सिंहादि के भय से अत्यन्त गहरे अगाध तलाव वगैरह के जल में भी 'कायं विउसिज्जा' प्रवेश नहीं करे अर्थात् अगाध पानी में भी जाकर या निमग्न होकर नहीं छिप जाय या 'णो वार्ड वा सरणं वा' सिंहादि के भय से चाटचाडा था शरण या 'से णं वा सत्थं वा कंखिज्जा' सेना या मित्रमण्डल की भी आकाक्षा नहीं करे अपितु 'अप्पुस्तुए जाव समाहिए' अल्प उत्सुक होकर अर्थात् अविमनस्क या उदासीन होकर यावत्-समाहित अर्थात् समाधि युक्त थे संपाच विगेरेना भयथी पीढ२-8 समापनमा अथ॥ दुग्गंवा अणु. વિજિજ્ઞા કિલામાં કે કોટમાં પ્રવેશ કરે નહીં' અર્થાત સિંહાદિ હિંસક પ્રાણિના ભયથી સાધુ કે સાધ્વીએ જંગલ વિગેરેમાં પ્રવેશ કરે નહીં. કેમ કે સંયમ પાલન કરવું એજ સાધુ અને સાથ્વીનું મુખ્ય કર્તવ્ય માનવામાં આવેલ છે. તેથી કંઈ પણ અકર્તવ્ય કાર્ય કરવું નહીં કે જેથી સંયમ પાલનમાં બાધા આવે એજ પ્રમાણે સિંહા हिना अयथी 'णो रुक्खंसि दुरुहिज्जा' वृक्ष ५२ ५५५ २ढवुनही. तथा से सिह विगेरे ४ि प्राणियोनी लयथा ‘णो महइमहोलयसि उदयसि' अत्यंत 631 अगाय तसा विगैरेन। म पY 'काय विउसिज्जा' प्रवेश ४२३ नही. अर्थात पाभi ga मी मा छुपा नही. 'णो वार्ड वा सरण वा सेणं वा' 2424सिड विगेरेना सयथी मां, श२५ मेटले , सेना 'सत्थं वा कंखिज्जा' भित्र भनी ५५] शास४२वी नही ५२'तु 'अप्पुस्सुए जाव समाहिए' अ६५ उत्सु થઈને અર્થાત અવિમનસ્ક અગર ઉદાસીન ભાવવાળા થઈને યાવત્ સમાહિત અર્થાત્ समाधिः युद्धत थेटवे शांत चित्ता थर 'तओ संजयामेय' सयम पू . श्री आया। सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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