SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 545
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५३४ आचारांगसूत्रे नावि नौकायां रन्ध्रेण - छिद्रभागेन उदकम् आस्रवमाणम् स्पन्दमानम् अन्तः प्रविशन् प्रेक्ष्य-दृष्ट्वा 'उवरुवरिं' उपर्युपरि उपरितनभागे ' नावं कज्जलावेमाणि पेहाए' नावम् आ प्लायमानाम् उदकैः प्रपूर्यमाणां प्रेक्ष्य - दृष्ट्वा 'नो परं उवसंकमित्त एवं ब्रूया' नो परं गृहस्थं यं कमपि उपसंक्रमितुम् नौकासमीपे गन्तुम् एवम् वक्ष्यमाणरीत्या ब्रूयात् वदेत्, तदाह'आउसंतो ! गाहावइ !" आयुष्मन् ! गृहपते ! 'एयं ते नावाए उदयं उत्र्त्तिगेण आसवई' एत त ते - तव नावि - नौकायाम् उदकम् रन्ध्रेण आस्रवति - अन्तरा गच्छति, 'उवरुवरिं नावा वा कज्जलावेइ' उपर्युपरि उपरितनभागे नौ र्वा प्लवते परिपूर्यते उदके रिति शेषः । 'एयप्यगारं मणं चा वायं वा नो पुरओ कट्टु विहरिज्जा' एतत्प्रकारकम् - उपर्युक्तरूपम् मनो वा वाचं वा नो पुरतः अग्रतः प्रधानं कृत्वा विहरेत् विहरणं कुर्यात्, मनसा वचसा वा व्यापारमकृत्वैव बिहारं कुर्यादिति भावः अपितु 'अपुस्सुए अब हिल्ले से' अल्पोत्सुकः शरी टीकार्थ- 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा नावाए उत्तिंगेण उदयं आसयमाणं पेहाए' वह पूर्वोक्त भिक्षु संयमशील साधु और भिक्षुकी साध्वी नावके अंदरमें छिद्र के द्वारा भराते हुए पानीको देखकर तथा 'उवरूयरिं नावं कज्जलावेमाणि पेहाए' ऊपर ऊपर पानीसे भरते हुए नाबको देखकर ' णो परं उवसंकमित्त ' गृहस्थ को या जिस किसीको भी नावके पास जाने के लिये 'एवं बूया' इस प्रकार के वक्ष्यमाण रूपसे नहीं कहे कि 'आऊसंतो ! गाहावह' हे आयुष्मन् ! गृहपति ! 'एयं ते नावाए उदयं उत्तिगेण आसवई' नावके अंदर यह पानी छिद्र के द्वारा भर रहा है या 'ऊवरूवरिं नावा वा कज्जलावेई' ऊपर ऊपर भाग में नाव पानी से भर रहा है यह भी नहीं कहे 'एयपगारं मणं वा वायं वा नो पुरओ कट्टु चिहरिज्जा' इस प्रकार के मन से या वाणी से व्यापार नहीं करके ही विहार करे अर्थात् मन और वचन को इस प्रकारके कहने का संकल्प से रहित करके ही विचरना चाहिये और 'अप्पुस्सुए अबहिल्लेसे' अल्प उत्सुक टार्थ' - 'सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोक्त संयमशील साधु भने साध्वी 'नावाए उत्तिगेण उदयं आसवमाणं पेहाए' नौमानी अंडर छिद्रद्वारा लराता पालीने लेने तथा 'उपरुवरिं नावा वा कज्जलावेमाणि पेहाए' उपर उपर पाथी लराती नौाने लेने 'नो परं उवसंकमित्त एवं बूया' गृहस्थने अन्य ने नौमानी पांसे वा भाटे नीचे डेवाभां भावनार प्रमाणे उडेवु नही है 'आउसंतो गाहावई' हे आयुष्मन् गृहपति ! 'ए' ते नावाए उदय' उत्तिंगेग आसवइ' भी तभारी नौभां छिद्रद्वारा पाणी भराई रघु छे अथवा 'उवरुवरिं नावा वा कज्जलावेइ' (५२ उपरना लागमां नौम पाणीथी लराती लय छे. 'एयप्पगारं मर्ग वा वायं वा' आ प्रहारना भनधी हे पालीथी 'नो पुरओ कट्टु विहरिज्जा' व्यापार अर्था विना विहार रखे। भन भने वयनथी पशु से प्रभा आडवांना समुदयपुर। नहीं' मते 'अप्पस्सुए अबहिल्लेसे' मय उत्सुङ अर्थात शरीर શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy