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मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंघ २ उ. १ सू० ७ तृतीयं ईर्याध्ययननिरूपणम्
यो ऋजु गच्छेत्, ततः संयतमेव ग्रामानुग्रामं गच्छेत् ॥०७ ||
टीका-पूर्वोक्तार्थमेव प्रकारान्तरेण प्रतिपादयन्नाह ' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' स भिक्षु व भिक्षुकी वा 'गामाणुगामं' ग्रामानुग्रामम् - ग्रामाद् ग्रामान्तरं 'दुइज्जमाणे' गच्छन् 'अंतरा से पाणाणि वा बीआणि वा' अन्तरा गमनमार्गमध्ये तस्य साधोः प्राणिनो वा 'द्वीन्द्रियादयो जीवाः, बीजानि या - शाल्यादि बीजानि वा हरिआणि वा' हरितानि वा- हरित वनस्पतितृणानि वा 'उदएवा' उदकं वा शीतोदकं वा 'मट्टिया वा' मृत्तिका वा उदकमि श्रितमृत्तिका वा 'अविद्धत्थे' अविध्वंसमाना सचित्ता यदि मिलेयुस्तर्हि 'सइपरकमे - सतिपराक्रमे अन्यस्मिन् सचित्तप्राण्यादिरहिते गमनमार्गे सति तेनैव गमनमार्गेण 'संजयामेव परिकमिज्जा' संयतमेव-यतना पूर्वकमेव परिक्रमेत गच्छेत् ग्रामाद्ग्रामान्तरं यायात् 'नो उज्जयं गच्छिज्जा' नो ऋजुना सरलेन अपि सचित्तप्राण्यादि युक्तेन मार्गेण गच्छेत् 'तओ संजयामेव ' सर्वथा यतनापूर्वकमेव 'गामाणुगामं दृइज्जिज्जा' ग्रामानुग्रामम् ग्रामाद् ग्रामान्तरं गच्छेत् येन संयमात्मविराधना न स्यात् ||सू० ७||
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अब फिरभी उसी पूर्वोक्तार्थ को दूसरे प्रकार से बतलाते हैं
टीका 'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे' वह पूर्वोक्त भिक्षु साधु और भिक्षुकी साध्वी एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाते हुए - 'अंतरा से मग्गे' उन दोनों ग्रामों के बीच में उस साधु और साध्वी को 'पाणाणि वा, बीयाणि वा' बहुत से प्राणि एवं बहुत बीज 'हरिआणि वा' हरित तृण घास एवं 'उद्या' उदक - कच्चा पानी और 'महिया या' मिट्टी अर्थात् उदक मिश्रित गिलिमिट्टी ये सब यदि 'अविद्वत्थे' अविध्वस्त अर्थात् सचित्त हो तो 'सइपर' कमे' दूसरे मार्ग के सचित प्राण्यादि से रहित होने पर उसी सचित्त प्राणि से रहित मार्ग से जाना चाहिये 'संजयामेव' संयमपूर्वक अर्थात् 'परिकमिज्जा' यता पूर्वक ही एक ग्राम से दूसरे ग्राम जाय किन्तु 'णो उज्जयं गच्छिजा' उस ऋजु सरल मार्ग से नहीं जाना चाहिये 'तओ संजयामेव गामाणुगामं दूईजिज्जा' क्योंकि इस मार्ग में अन्य मार्ग में अनेक जीवजंतु की हिंसा की संभा
હવે એ પૂર્વોક્ત કથનને બીજી રીતે પ્રતિપાદિત કરે છે.-
टीडार्थ - ' से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' से पूर्वोक्त साधु ने साध्वी 'गामाणुगाम' दुइज्जमाणे' मे गामथो मीने शामत 'अंतरा से पाणाणि वा' मे मेङ गाभानी पस्ये ये साधु ने साध्वी धा आशिया तथा 'बीयाणि वा' घड़ी भी पाणी वनस्पति 'हरियाणि वा' तथा घी मेवी तृयु घास विगेरे वनस्पति 'उदए वा मट्टिया वा' 'डुपाशी तथा मिश्रितसीसी भारी मा अघा ने 'अविद्धत्थे' अविश्वस्त अर्थात् सथित्त होय तो 'सइपरकमे' मोल भागे थी नयां सन्ति आशियो न होय तेवा भार्गेथी 'संजयामेव परिकमिज्जा' સયમપૂર્ણાંક જવું'. અર્થાત્ યતના પૂર્વક જ એક ગામથી બીજે ગામ જવુ. પરંતુ એવા પ્રાણિયા વિગેરેથી યુક્ત સરળ માર્ગેથી ન જવું કારણ કે જીવ જંતુઓવાળા માળેથી
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪