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________________ आचारांगमने तया साधूनां संयमविराधकत्वेन वासो न युक्त इत्याह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी या' इत्यादि । स भिक्षुर्या भिक्षुकी वा-साधुर्वा साध्वी वा-'से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा' स साधुः यत् पुनः यदि खलु वक्ष्यमाणस्वरूपम् उपाश्रयं जानीयात्-'आइण्णसंलि. खं आकीर्णसंलेख्यम्-चित्रव्याप्तम् उपाश्रयं यदि जानीयात् इति पूर्वेणान्ययः, तहि 'णो पण्णस्त णिक्खमणपवेसणाए' नो प्राज्ञस्य साधोः निष्क्रमणप्रवेशनाय स उपाश्रयः कल्पते इति शेष: 'जाव चिंताए' यावत्-वाचन पृच्छा परिवर्तनानुप्रेक्षणमननचिन्तायै स्वा. ध्यायवाचनमननचिन्तनार्थमपि स उपाश्रयः साधनां न कल्पते इति शेषः "एवं जाव' यावत् तथा प्रकारे चित्रयुक्ते उपाश्रये 'णो ठाणं वा सेज्ज वा णिसीहियं वा चेतेज्जा' नो करने वाले स्त्री पुरुष के घर के निकटवर्ती उपाश्रय में साधु और साध्वी को नहीं रहना चाहिये अथवा विषय भोगादि का रहस्य विषय का वार्तालाप करने वाले स्त्री पुरुष सम्बद्ध उपाश्रय में भी साधु और साध्वी को नहीं रहना चाहिये यह बतलाकर सम्प्रति अभी स्त्री पुरुषों के चित्र युक्त उपाश्रय में भी साधु और साध्वी को नहीं रहना चाहिये यह बतलाते हैं टीकार्थ-'से भिक्खू चा, भिक्खूणी वा, से जं पुण उवस्मयं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षुक जैन साधु और भिक्षुकी जैन साध्वी यदि ऐसा यक्ष्यमाण रूप से उपाश्रय को जान लेकि 'आइण्ण संलिक्खं यह उपाश्रय अकीर्ण संलेख्य अर्थात संलेख्य अर्थात् चित्रों से व्याप्त है एतावता इस उपाश्रय में अनेक प्रकार के चित्र टङ्गेहए है जिनको देखकर मन विचलित हो सकता है तो इस प्रकार के अनेक ही बीभत्स विषयाकर्षक चित्रों से युक्त उपाश्रय में 'णो पण्णस्स' प्राज्ञ संयमशील साधु और साध्वी को 'णिक्खमणपवेसणाए जाव चिंताए जाव' निष्क्रमण प्रवेश करना ठीक नहीं है और यावतू स्वाध्याय का अनुचिन्तन मनन भी करना ठीक नहीं है और यावत् वाचना पूछना आवृत्ति करना तथा સ્ત્રીપુરુષના સંબંધવાળા ઉપાશ્રયમાં પણ સાધુ કે સાધ્વીએ ન રહેવા સંબંધી કથન કરીને હવે સ્ત્રી પુરૂષના ચિત્રવાળા ઉપાશ્રયમાં સાધુ કે સાવીને ન રહેવા વિષે સૂવકાર કથન કરે છે. राय-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूति साधु ने सयभवती साध्वी से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा' ले १क्ष्यमा प्रारथी उपाश्रयने गणे-'आइण्णसंलिक्खं' मा ઉપાશ્રય આકર્ણ સંલેખ્ય અર્થાત્ ચિત્રથી ચિત્રલ છે. એટલે કે ઉપાશ્રયમાં અનેક પ્રકારના ચિત્ર ચિત્રેલ કે ટાંગેલ છે. કે જેને જોઈને મન વિચલિત થઈ જાય તેવા છે. તે આવા પ્રકારના અનેક બીભત્સ વિષયકર્ષક ચિત્રવાળા ઉપાશ્રયમાં “નો पण्णाप्त णिक्खम गपवेसणाए' प्राज्ञ-मर्थात् सयभशी साधु मन सवी नियु प्रवेश नही. 'जाव चिंताए' भने यावत् स्वाध्यायनु अनुयितन मनन ५४ ४२७ नही અને યાવત્ વાંચવું પૂછવું કે અવૃત્તિ કે અનુપ્રેક્ષણ પણ કરવું નહીં. અર્થાત્ વિષયાકર્ષક ચિત્રવાળા ઉપાશ્રયમાં સાધુ કે સાધ્વીને રહેવા માટે કે સ્વાધ્યાયનું વાંચન મનન અને श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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