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आचारांगसूत्रे एह वा णं' परिभाजयत वा खल्लु-परस्परं विभाजयत या 'तं परेहिं समणुण्णायं समणुसर्ट' तद् लवणं परैः गृहस्थैः समनुज्ञातम् अनुज्ञापितम्, समनुसृष्टम्-ज्ञात्वा दत्तम् 'तओ संजयामेव' नतः समनुज्ञादानानन्तरम् संयत एव 'अँजिज्ज वा पीइज्ज वा' भुञ्जीत वा पिबेद् वा 'जं च णो संचाएइ भोत्तए वा पायए वा' यत् च लवणं नो शक्नोति भोक्तुं वा पातुं वा समर्थों न भवति, तद् लवणं 'साधम्मिए नत्थ वसंति' साधर्मिकाः स्वसमानधर्मिणः साधव तत्र वसन्ति तद्यथा 'संभोगिकाः 'समणुना' समनोज्ञाः 'अपरिहारिया' अपरिहारिकाः अपरिहायोः परिहतुमशक्या इत्यर्थः 'अदूरगया' अदरगताः समीपवर्तिनः ये सावधः सन्ति 'नेसि अणुप्पयायव्य सिया' तेषां-तेभ्यः साधर्मिकेभ्य अनुप्रदातव्यं स्यात, सांभोगिकादिभ्यः साधर्मिकेभ्यस्तल्लवणं दातव्य मित्यर्थः । किन्तु 'णो जत्थ साहम्मिया' नो यत्र साधर्मिकाः 'परिभाएह वाणं' अब आप उस नमक को खाय या परस्पर में विभाजन करले अर्थात् सभी साधु आपस में वांट ले, यह आपकी इच्छा पर निर्भर है। 'तं परेहिं समणुण्णायं समणुसह' बाद में वह संयमशील साधु और साध्वी उस बिड नमक या सिन्धा नमक को उन गृहस्थ श्रावकों से समनुज्ञा पित और जान कर दिया हुआ समझकर 'तओ संजया मेव भुंजिज्ज वा' संयत संयम पूर्वक ही खाय और 'पीइज्ज चा' पीये किन्तु 'यं च णो संचाएइ भोत्तए चा, पायए चा, जिस, नमक को खा नहीं सके या पी नहीं सके तो उस नमक को 'साहम्मिए तत्थ वसंति' जो वहां पर सार्मिक-अपने समान धर्म वाले साधु हों जैसे 'संभोइया' सांभोगिक हों अथवा 'समणुण्णा' समनोज्ञ हों या 'अपरिहारिया अपरिहारिक हों जिन को कि वह छोड नहीं सकते ऐसे साधु हों
और 'अदर गया' अदरगत-निकटवर्ती साधु हो 'तेसिं अणुप्पयायव्वं सिया' उन साधार्मिक वगैरह साधुओं को दे देना चाहिये अर्थात् सांभोगिक वगैरह भावानी समति मा छु 'तं भुजह वा गं' तो ५ मे १५ मा मय। 'परिभाएह वा णं' मे जीत पायी से समर्थात् मया साधुमे। ५२२५२ पयो देते मानी ४२छानी पात छ. 'तं परेहिं समणुण्णाय समणुसटुं' ते ५४ी में साधु ? सावीस मिन. મક અથવા સિંધવનમકને એ ગૃહસ્થથી સમનુજ્ઞાત થઈએ અને જાણીને આપેલ છે તેમ समलने 'तओ संजयामेव भुज्जिज्ज वा' संयम पूर्व ते माय मथवा 'पीइज्ज वा' पीव 'जंच णो संचाएइ भोत्तए वा पायए वा' परंतु २ भीने पानश मगर पी नई में भी 'साहम्मिए तत्थ वसंति' त्यांचे साधभिः साधु डायम 'सांभो. इया' सलाnिs साधु डाय मया 'समणुण्णा' समनाशय मया 'अपरिहारिया' अपरिहा२४ सय अर्थात् २२ छोडी - शय सेवा साधु डाय मया 'अदूरगया' सभी५२५ २७स साधु य 'तेसिं अणुप्पयायव्वं सिया' ये सामि विगैरे साधुसोने એ આપી દેવું. અર્થાત્ તે લીધેલ મીઠું સાંગિક વિગેરે સાધર્મિક સાધુઓને આપી દેવું
श्री सागसूत्र :४