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________________ ૨૨૮ आचारांगसूत्रे यावत्-पिण्डपानप्रतिज्ञया-भिक्षालाभार्थं प्रविष्टः सन् ‘से जं पुण एवं मंथुजायं जाणिज्जा' स-भावभिक्षुर्यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या मन्थुजातम्-चूर्णजातसामान्यम् जनीयात् 'तं जहा उंबरमंथु वा' तद्यथा-उदुम्बरमन्थुवा-उदुम्बरफलचूर्ण वा 'नग्गोहमंथु वा' न्यग्रोधमन्थुवा -बटवृक्षफलचूर्ण वा 'पिलुवखुमंथुवा' प्लक्षमन्थुवा-पक्षवृक्षफलचूर्ण वा पिप्पल इति भाषा प्रसिद्धवृक्षविशेष चूर्णइत्यर्थः 'आसोत्थमंथु वा' अश्वत्थमन्थुवा-पिप्पलवृक्षफलचूर्ण वा 'अन्नयरं या तहप्पगारं' अन्यतरद वा-अन्यद वा किमपि तथाप्रकारम् उदुम्बरवृक्षफल चूर्णसदृशम् 'मंथुजायं' मन्थुजातम्-फलचूर्णसामान्यम् 'आमगं' आमकम्-अपरिपक्वम् 'दुरुक्क' दुपिष्टम् ईषत् पिष्टम्, 'साणुवीयं सानुबीजम्-अविध्वस्तयोनिबीजम्, अनुपहतबीजसहितम् 'अफा. मुयं' अप्रामु रुम् सचित्तम् 'अणेसणिज्ज' जाव अनेषणीयम् आधाकर्मादिदोषसहितम् यावत् करते हैं-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाय पविढे समाणे' वह पूर्वोक्त भिक्षु-संयमशील साघु और भिक्षुकी--साध्वी गृहपति-गृहस्थ श्रावक के घर में यावत्-पिण्डपात की प्रतिज्ञा से-भिक्षा लेने की इच्छा से प्रविष्ट होकर 'से जं पुण एवं मधुंजायं जाणिज्जा' वह साधु और साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाणरीति से मंथु चूर्ण को जाने-'तं जहा उंबरमंथु वा' जैसे कि उदुम्बर- गूलर फलका मन्थुचूर्ण हो या 'णग्गोहमंधुं वा' न्यग्रोध-चट फल का चूर्ण हो या 'पिलुखुमंथु वा' ल्पक्षपाकर फल पीपल जात का वृक्ष विशेष का चूर्ण हो अथवा 'असोत्थमंथुवा' अश्वत्थ-पीपल फल का चूर्ण हो या 'अण्णयरं वा तहप्पगारं मंथुजा' अन्य किसी दूसरा ही इस प्रकार का मन्थु जात-चूर्ण हो किन्तु वह गूलर वगैरहका फल चूर्ग यदि 'आमगं' आम-कच्चा है अर्थातू परिपक्व नहीं है तथा 'दुरुक्क' दुष्पिष्टखराबरूप से जरा साही पीसा गया है और 'साणुबीय' सानुबीज-अनुपहत बीज वाला है अर्थात् जिसका बीज नष्ट नहीं हुआ है इस प्रकार का गूलर वगैरह का फलचूर्ण 'अप्फासुयं जाव' अप्रासुक-सचित्त तथा यावत् अनेषणीय-आधाक હવે ઉમરડા વિગેરેના ફળના ભૂકાને ઉદ્દેશીને તેને નિષેધ કહે છે___ -- से भिक्खू या भिक्खुणी वा' ते पूरित साधु है साची 'गाहावइकुलं जाव' स्थ श्रीयन। घरमा यावत् भिक्षा सेवानी ४२७ाथी 'पवितु समाणे' प्रवेश ४२१२ ‘से जं पुण एवं मंथुजाय जाणिज्जा' तमनापामा मेयु भयुयू मावे 'तं जहा' 7 'उबरमंथु बा' उभ२31न। नु यू ५२१॥ ‘णग्गोहमंथु वा' 43॥ जानु यू डाय अथवा 'पिलुखुमंथु वा' पी५माना जनु यू डाय 4240 'असोत्थमथु वा' पापजाना जनु यू डाय मया 'अण्णयरं वा तहप्पगारं' भी । तेना २१॥ 'मंथुजायं' यूए डाय ५५ ते यू २ 'आमगं' ५।। डाय अर्थात् ५२५४१ न डाय 'दुरुक्क' ०२।१२। पाटेत य तथा 'सानु થી જેના બી બરાબર વટાયા ન હોય આવા પ્રકારનું ઉમરડા વિગેરેના ફળનું ચૂર્ણ 'अप्फोसुयं जाव' सथित तम अनेषणीय माघाहिहोषणा पाथी त प्राप्त थाय श्री मायाग सूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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