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________________ २०० आचारांगसूचे -भाजनेन उदकाीकृतपात्रेण 'सीओदगेण वा' शीतोदकेन वा 'संभोइत्ता' संभोज्य मिश्रयित्वा मिश्रितं कृत्वेत्यर्थः 'आहटु दलइज्जा' आहृत्य-आनीय दद्यात् तर्हि 'तहप्पगारं' तथाप्रकारम् एवंविधम् सचित्तपृथिवीकायिकाद्युपरिस्थापितं सचित्तोदकादिमिश्रित वा 'पाणगजायं' पानकजातम् 'अप्फासुयं' अप्रासुकम-सचित्तम् ज्ञात्वा 'लाभे संते' लाभे सति ‘णो पडिगाहिज्जा' नो प्रतिगृह्णीयात् सचित्त पृथिवीकायिकाधुपरिस्थापितस्य सचित्तोदकादि मिश्रितस्य च पानकजातस्य सचित्तत्वेन अनेषणीयत्वेन च तद्ग्रहणे साधूनां साध्वीनाश्च संयमात्मदातृविराधना स्यात्, तस्मात् एतादृशं सचित्तं अनेषणीयं च पानकजातं साधुभिः साध्वीभिश्च न ग्रहीतव्यमिति ॥ मू० ७५ ॥ मूलम्-एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गियं तिबेमि ॥सू० ७६॥ ॥सत्तमोदेसो समत्तो ॥ छाया-एतत् खलु तस्य भिक्षुकस्य भिक्षुस्था वा सामग्र्यम् इति ब्रवीमि ॥मू० ७६॥ सप्तमोद्देशः समाप्त एवं 'सकसाएण वा' सकषाय सचित्त पृथिवीकायिक से अवगुण्ठित-ढका हुआ 'मत्तण वा' अमत्र-पात्र से अर्थात् पानी से गीला किया हुआ भाजन से अथवा 'सीओदएण वा संभोएसा' शीतोदक से मिश्रित कर के यदि 'आहटु दलएज्जा' लाकर देतो 'तहप्पगारं पाणगजायं' इस प्रकार का शीतोदक से मिश्रित या पानी से गीला किया हुआ तथा सचित पृथिवीकायिक से टका हुआ पात्र से लाया गया पानी को 'अप्फासुयं लाभेसंते' अप्रासुक-सचित समझकर मिलने पर भी साधु और साध्वी 'णो पड़िगाहिज्जा' ग्रहण नहीं करे अर्थात् सचित्त पृथिवीकायिक के ऊपर स्थापित तथा सचित शीतोदक मिश्रित पानी को भी सचित्त एवं आधाकर्मादि दोषों से युक्त होने के कारण ग्रहण करने से साधु और साध्वी का संयम-आत्मदातृ विराधना होगी इसलिये इस तरह के अप्रा. सुक-सचित और अनेषणीय-आधाकर्मादि दोष युक्त पानी को नहीं ले ॥७॥ सारण वा' सथित वीयि४थी ढ3a A40 'मत्तेण वा' पापीथी लाना पात्रया अयqा 'सीओदएण वा' ! पाथीथी लीना पाथी २२ तथा संभोइत्ता' पाणी भेजनेस पाणी 'आहटु दलइज्जा' ने पीने मापे । 'तहप्पगार सेवा प्र४२नु पर्थात् પાણથી મિશ્રિત અથવા પાણીથી ભીના પાત્રથી અથવા સચિત્ત પૃથ્વીકાચિકથી ઢાંકેલ पाथी सापामा मास पाणगजाय' पाणार 'अप्फासुय' सथित्त मानीन 'लाभे संते' भणे तो पण साधु सावाये ‘णो पडिगाईज्जा' हय ४२ नहीं, अर्थात् सचित्त પૃથ્વીકાયિકની ઉપર રાખેલ તથા ઠંડા પાણીથી મળેલ પાણીને પણ સચિત્ત અને આધાકમકિ દેથી યુક્ત હોવાથી ને ગ્રહણ કરવાથી સાધુ અને સાધ્વીને સંયમ-આત્મ દાતુ વિરાધના થશે. માટે આવી રીતના અપ્રાસુક-સચિત્ત અને અષણીય આધાકર્માદિ દેષ વાળું પાણી લેવું નહીં કે ૭૫ છે श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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