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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ७ सू० ७५ पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् १९९ गृहपतिकुलं 'जाव' यावत् - पानकप्रतिज्ञया पानीयभिक्षाशया 'पविद्वे समाणे' प्रविष्टः सन् 'से जं पुण एवं पाणगं जाणिज्जा' स साधुः यदि पुनरेवं वक्ष्यमाणरीत्या पानकम् पानीयं जानीयात् तद्यथा 'अनंतर हियाए' अनन्तर्हितायाम् - अव्यवहितायां 'पुढवीप' पृथिव्याम् पृथिवीकायिके 'जाव संताणाए' यावत् पनकोर्त्तिगदगमट्टियामर्कटसन्तानके - लूता तन्तु जाके 'ओहद निखित्ते सिया' अवहृत्य उद्धृत्य निक्षिप्तं स्थापितं स्यात्, अथवा 'असंजए' असंयतः गृहस्थः ' भिक्खुपडियाए' मिक्षुप्रतिज्ञया साधवे दातुम् 'उदउल्लेण वा ' उथका द्रेण वा गलदुदकविन्दुना 'ससिणिद्वेण वा' सस्निग्वेन स्नेहयुक्तेन आर्द्रीभूतेन 'सकसाएण वा' सकषायेण वा सचित्तपृथिवीकायिकावगुण्ठितेन 'मत्तेण वा' अमत्रेण वा टीकार्थ- अब पृथिवीकायिक आदि से सम्बद्ध सचित्त पानी को नहीं लेना चाहिये इस तात्पर्य से कहते हैं-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं जाव एवं पाणगं जाणिज्जा' वह पूर्वोक्त भिक्षु-संयमशील साधु और भिक्षुकी-साध्वी गृहपति- गृहस्थ श्रावक के घर में यावत् पानकी प्रतिज्ञा से पानी लेने की इच्छा से 'पविट्ठे समाणे' प्रविष्ट होकर 'से जं पुण एवं जाणिज्जा' वह साधु और साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाणरीति से पानक-पानी को जान लेकि 'अनंतर हिताए पुढचीए जाय संताणाए' अनन्तर्हित-अव्यवहित- किसी अन्य के व्यवधान के बिनाही साक्षात् पृथिवीकायिक के उपर और यावत्-उत्तिङ्ग अत्यन्त क्षुद्र जन्तु तथा पनक - फनिगा - पतिङ्गा वगैरह कीटों से युक्त तथा शीतोदक मिश्रित मिट्टि तथा मकरा - लूता तन्तु जाल परम्परा से सम्बद्ध पृथिवी पर 'ओहहूड णिक्खिन्ते सिया' लाकर रक्खा हुआ है ऐसा देखले या जान ले और 'असंजए भिक्खुपडियाए ' असंयत- गृहस्थ श्राचक भिक्षु की प्रतिज्ञा से साधु को देनेकी इच्छा से 'उदउ - ल्लेण चा' उदकाई - पानी से भिगा तथा 'ससिणिद्वेण वा' सस्निग्ध-स्नेह युक्त હવે પૃથ્વીંકાયિક વિગેરેના સ ́બંધ વાળુ. સચિત્ત પાણી ન લેવાના સંબંધમાં સૂત્રકાર उहे छे. टीडार्थ' - ' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोऽत संयमशील लिक्षु अथवा साध्वी 'गाहावइकुलं जाव' गृहस्थ श्रापना घरमा यावत पाणी सेवानी हाथी 'पविट्ठे समाणे' प्रवेश श्ररीने 'से जं पुण एवं पाणगं जाणिज्जा' तेयोना लगुवामां मेवु' आवे है - 'अनंतर हियाए ' अनन्तर्हित-जील अर्धना व्यवधान वगर ४ साक्षात् 'पुढवीए' पृथ्वी डायनी उपर 'जाव संताणाएं' यावत् अत्यंत अपतु तथा पन विगेरे डीडायोथी युक्त तथा 'ओहद्रटु णिक्खित्ते सिया' 8'3ा पाशुीवाजी भाटी तथा भ अडानी तंतुन्नस (द्वार) ना संधवानी पृथ्वी पर राजेस होय तेवु लेवामां भावे भने 'असजए' गृहस्थश्रा 'भिक्खुपडियार' साधुने साथवानी २छाथी 'उदउल्लेण वा' उद्र वाणी हाथथी अर्थात् पाणीना टींचा पड़ता होय तेवा हाथथी तथा 'ससिणिद्वेण वा' सस्निग्ध लोना हाथथी अथवा सक શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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