SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांगस्ने णियं वा छिवाडि अणभिक्कतमभज्जियं पेहाए, अफासुर्य अणेसणिज्जति मण्णमाणे लाभे संते वि णो पडिगाहिज्जा ।सू०३॥ ____ छाया-स भिक्षुर्वा, भिक्षुकी वा गृहपतिकुलं पिण्ड पातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टः सन् स याः पुनः औषधीः जानीयात, कृत्स्नाः स्वाश्रयाः अद्विदलकृताः अतिरश्चीनच्छिन्नाः अव्यपच्छिनाः तरुणी वा फलिं (छिवाडि) अनभिक्रान्ताम् अभग्नाम् प्रेक्ष्य अप्रासुकाम् अनेषणीयाम् इति मन्यमानो लाभे सति न प्रतिगृह्णीयात् ।। सू०३ ॥ मर्मप्रकाशि का टीका-अथ श्रमणानाम् औषधिग्रहणविषये विधि प्रतिपादयितुमाह-'से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए' इत्यादि । स पूर्वोक्तो भावमिक्षुर्या भिक्षुकी साध्वो वा गृहपनिकुलं श्रारकगृहम् पिण्डपातप्रतिज्ञया-'अहमत्र भिक्षा लप्स्ये' इत्येवं मिक्षालामप्रतिज्ञया अनुपविष्टः सन् स भाभिक्षुः याः पुनरिति वाक्यालंकारे औषधीः फलपाकान्ताः शालिबीजादिका निम्नप्रकारेण जानीयात्-अवगच्छेत् ताः कीदृश्यः तदाह-कसिणाओ'-इत्यादि कृत्स्नाः परिपूर्णाः सम्पूर्णवाद अनुपहताः सचित्ताः ताः औष श्रयः सन्ति, तत्र द्रव्यतः शस्त्रानुपहताः, भावत: सचित्ताः ताः इत्यर्थः, एवं पुनस्ताः औषधयः कीदृश्यः ? इत्याह-स्वाश्रा:--अविनष्टमूलाः स्वासामुत्पत्तिम्प्रति आश्रयो विधमानकालो यासु ताः स्वाश्रयाः स्याश्रयकालस्य विद्यमानत्वात् ता अविनष्टयोनयः सन्तीत्यर्थः, एवम् ताः अद्विदलकृताः-कृतद्विभागरहिताः अकृतद्विभागा अनूयपाटिता इत्यर्थः, टोकार्थ-अब साधु साध्वी को औषधि ग्रहण विषय में किस प्रकार कि औषधि लेनी चाहिये इस विधि का प्रतिपादन करते हैं-'से भिक्खू चा भिक्खु णी या गाहावाकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविढे समाणे' इत्यादि । स-वह पूर्वोक्त भावसाधु और भाव साध्वी गृहपति श्रावक गृहस्थ के घर में पिण्डपात की प्रतिज्ञा से-भिक्षा माप्त करने की आशा से अनप्रविष्ट होकर 'से जाओ पुण ओसहीओ जाणेजा 'स वह भावभिक्षु या भाव भिक्षुकी ऐसा जान ले किजो औषधियां 'कसिणाओं कृत्स्न है-सम्पूर्ण अनुपहत होने से सचित्त हैं और 'सामियाओ' स्वाश्रया-अविनष्टमूल हैं-जिनका मूल भाग विनष्ट नहीं हुआ है एवं 'अविदलकडाओ' अद्विदलकता-जिन के दो टुकडे नहीं किये गये हैं और 1 ટીકાથ-હવે સાધુ અગર સાવીને ઔષધ સેવનના સંબંધમાં કેવા પ્રકારનું ઔષધ न त विधिनु प्रतिपाहन छ-'से भिक्ख वा भिक्खुणी वा' ते पूतिमाय सा५ मया ला साप 'गाहावइकुलं' २५ श्राना घरमा 'पिंडवायपडियाए' (मक्षा भण. पानी माथी 'अणुप्पविद्वे समाणे' प्रवेश प्रशन से जाआपुण ओसहीओ जाणेज्जा' ते ला साधु मगर ला साधी से तालेय है भीषधी-यामा विगेरे ‘कसिणाओ' सभा परि५४५ नापाथी शयत्त छ. तेभा 'सासियाओ' स्याश्रय अर्धा ना भू नष्ट नया थया ते॥ छ. तथा 'अविदलकडाओ' अद्वितत नाम टु ४२वामा नथी माया श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy