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मर्मत्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ७ सू० ६९ पिण्डेषणाध्ययननिरूपणम् १८३ महावीरः ब्रूयात् ब्रवीति उपदिशतीत्यर्थः 'आयाणमेयं' आदानम्-कर्मागमनद्वारम् कर्मबन्धहेतुः एतत्-अग्निकायोपरि स्थापितम् अशनादिकमाहारजातं वर्तते तस्मान्नैतद्भिक्षुभिग्राह्य मित्यर्थः, तदुपपादयितुमाह-'असंजए' असंयतः-गृहस्थः 'भिक्खुपडियाए' भिक्षुप्रतिज्ञया साध्वे भिक्षा दातुम् 'अगणिकायं' अग्निकायम्-अग्निकायिकजीवम् 'उस्सकिय उस्सक्किय' उत्सिच्य उत्सिच्य उल्मुकादिना प्रज्वाल्य प्रज्वाल्य इन्धनादिना उद्दीपितं कृत्वेत्यर्थः 'णिस्सि किय हिस्सक्किय' निषिच्य निषिच्य-प्रज्वलिताग्निना इन्धनादिकं निष्काश्य बहिनिः सार्य निःसार्येत्यर्थः 'ओहरिय ओहरिय' अवहृत्य अवहृत्य-अग्न्युपरि स्थापितं भाजनमधस्ताद अयतार्येत्यर्थः 'आह टूटु दलएज्जा' आहृत्य-आनीय अग्निकायोपरिस्थापित भाजनस्थमशनादिकं चतुर्विधमाहारजातं गृहीत्वेत्यर्थः दद्यात्, तन्न साधुभिद्यमित्यत्र हेतुमाह-'अहभिवखणं पुब्योयदिहा एस पइण्णा' अथ भिक्षूणां साधूनां साध्वीनाञ्च कृते पूर्वोपदिष्टा पूर्वोक्तरीत्या अग्निकायिक जीवोपरि स्थापित आहार साधु और साध्वी को नहीं लेना चाहिये अब उसका उपपादन करते हैं-'असंजए भिक्खुपडियाए अगणिकायं क्योंकि असंयत-गृहस्थ श्रावक भिक्षुकी प्रतिज्ञा से-साधु को भिक्षा देने की इच्छा से अग्निकाय जीव को 'उस्सकिय उत्सकिय (ऊल्मुक) बगैरह लकडी के द्वारा चारबार प्रज्वलित करके और प्रज्वलित अग्नि से इन्धन वगैरह को 'णिरसकिय णिसकिय बाहर बारबार निकाल कर और 'ओहरिय ओहरिय' अग्नि के ऊपर स्थापित पात्र को नीचे उतारकर अशनादि चतुर्विध आहार जात को 'आहटूटु दलएज्जा' भिक्षा दने के लिये लाकर साधु को भिक्षा देगा किन्तु वक्ष्यमाण कारणों से साधु उसे नहीं ग्रहण करे यह बतलाते हैं 'अह भिक्खूणं पुचोव दिट्ठा एस पइण्णा' किन्तु भिक्षुकोंकी साधुओं और भिक्षुकी-साध्वी के लिये पूर्व में बतलायी हुयी ऐसी प्रतिज्ञा है अर्थात् संयम को अच्छी तरह पालन करने का नियम बतलाया गया है और 'एस हेऊ' हेतु तथा यावत् कारण एवं उपदेश ગમન-કર્મબંધનનું કારણ બને છે. તેથી આ રીતના અાય અગર અગ્નિકાયની ઉપર રાખેલ આહાર સાધુ અને સાવીએ ન જોઈએ.
व तेनु पान ४२di 3 छे.- 'असंजए' मसयत- 8थ श्राप 'भिक्खुपडि. याए' साधुन लिया भावना ४२४थी 'अगणिकाय' AAय अपने 'उस्सकिय उस्सक्किय' ઉમુક-ઈધન લાકડા વિગેરેને વારંવાર પ્રજવલિત કરીને અને પ્રજવલિત અગ્નિમાંથી ઇંધન विरेने 'णिस्सक्किय णिस्सकिय' पार पा२ मा ४७०२ तमः 'ओहरिय ओहरिय' मनि.
यी ५२ रामेस पात्रने नीय SINR अशनाहि यतुविध २मा २ जतने 'आहट्टु दलएज्जा' लिखा माटे २॥५१॥ भाटावी. साधुने HिAL मा५शे पर ते से नहीं तनु र मतातi सूत्र।२ ४. छे.-'अह भिक्खूणं पुन्वोपदिवा एसपइण्णा' साधु अने. સાધ્વીને પહેલા કહેવામાં આવેલ એવી પ્રતિજ્ઞા–નિયમ છે. અર્થાત્ સંયમ સારી રીતે
श्री सागसूत्र :४