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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ उ. ५ सू० ५० पिण्डैषणाध्ययननिरूपणम् १३३ समाणे' गृहपतिकुलं यावत् पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टः सन् 'से जं पुण जाणिज्जा' स यत् पुनः वक्ष्यमाणरीत्या जानीयात् - अवगच्छेत्, वक्ष्यमाणप्रकार मेवाह - 'समणं वा माहणं चा' श्रमणं वा चरकशाक्यप्रभृतिरूपम् ब्राह्मणं वा 'गामपिंडोलगं वा' ग्रामभिक्षुकं वा 'अतिहिं या' अतिथि वा 'पुव्वपविद्धं पेहाए' पूर्वप्रविष्टम् 'पेहाए' प्रेक्ष्य दृष्ट्वा 'णो तेसिं संलोए' नो तेषाम् पूर्व प्रविष्टानां शाक्यप्रभृतीनाम् संलोके संमुखे 'सपडिदुयारे चिद्विज्जा' स साधुः प्रतिद्वारे द्वाराभिमुखे तिष्ठेत्, ग्रामादौ भिक्षार्थी प्रविष्टः साधुर्यदिपुनरेवं जानीयात् यथाsस्मिन् गृहे शाक्यादिः कश्चिद् भिक्षार्थं पूर्वमेव प्रविष्टोऽस्ति तर्हि तं शाक्यादिकं पूर्वप्रविष्टं प्रेक्ष्य दातृप्रतिग्राहकमध्ये समाधानविघ्नबाधाभयात्तदालोके न तिष्ठेत्, नवा नभिर्गमद्वारं प्रतितिष्ठेत्, तयोर्मध्ये समाधानविघ्नबाधाभयसंभवात्, किन्तु तथा च संयमात्मविराधना में टीकार्थ- - अब गृहपति के घर में प्रवेशानन्तर साधुका आहार ग्रहण विधि बतलाते हैं - ' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइ कूलं जाय पविट्ठे समाणे' वह पूर्वोक्त भिक्षु-भाव साधु और भिक्षुकी भाव साध्वी गृहपति-गृहस्थ श्रावक के घर यावत्-पिण्डपातकी प्रतिज्ञा से भिक्षा लाभ की आशा से अनुप्रविष्ट होकर 'से जं पुण जाणेज्जा' वह साधु या साध्वी यदि ऐसा वक्ष्यमाण रीति से जान लेकि'समणं वा माहणं वा गामपिण्डोलगं वा' श्रमणचरक शाक्य प्रभृति साधु संन्यासी, या ब्राह्मण अथवा ग्रामपिण्डोलक - ग्रामका भिक्षुक या 'अतिहिं वा' अतिथिआग तुक अभ्यागत 'पुत्र्वपविद्धं पेहाए' पहले से हो प्रवेश किये हुए हैं ऐसा देख 'नो 'णो तेसिं संलोए सपडिदुवारे चिट्ठेज्जा' दाता और प्रति ग्राहक - याचक के मध्य में समाधान होने में विघ्न बाधा के भय से उन पूर्व प्रविष्ट चरक शाक्य प्रमृति भ्रमणों के सामने नहीं ठहरे और निकलने के द्वार पर भी नहीं ठहरे, अन्यथा संयम आत्मविरोधना होने की संभावना रहती है ऐसा 'केवली वूया आयाणभेयं' केवल ज्ञानी भगवान् महावीर प्रभु कहते हैं अर्थात् गृहपति के कर ગૃહસ્થના ઘરમાં પ્રવેશ કર્યાં પછી સાધુના આહાર ગ્રહણને વિધિ સૂત્રકાર ખતાવે છે. टीडार्थ' - ' से भिक्खू वा भिक्खुणी वा' ते पूर्वोस्त साधु के साहची 'गाहावइ कुलं जाव पविट्ठे समाणे' गृहपति-गृहस्थ श्रापना घरमा लिसा आप्तिनी इच्छाथी प्रवेश र्या पछी 'से जं पुण जाणिज्जा' तेभना लागुवामां मेवु आये है 'समणं वा माहणं वा' श्रम २४ शाय विगेरे साधु सन्यासी अथवा ब्राह्मणु अथवा 'गामपिंडोलगं वा' शाभना लिक्षु अथवा 'अतिहिं वा' ल्यागत 'पुत्र्वपविट्ठे पेहाए' पडेसां अर्थात् भारा भवता पडेसां प्रवेशेल छे से प्रभारी लेहाने 'णो तेसिं संलोए' तेखानी संभुम ला रहेवु' नहीं 'णो तेर्सि संलोए सपsिदुवारे चिट्ठिज्जा' तथा नीउजवाना द्वार पर पशु उलान रहेवु तेभ उरपाथी संयम आत्म विराधना थपाना संभव रहे छे 'केवलीवूया आयाणमेयं' मा प्रभावक જ્ઞાની ભગવાનૢ મહાવીર પ્રભુ કહે છે અર્થાત્ ગૃહપતિના ઘરમાં પહેલાં પ્રવેશ કરેલ ચરક શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૪
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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