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________________ १२४ आचारांगसूत्रे निलिहिज्ज या' संलिखेद वा नो संलेखनं कुर्यात्, निलिखेद वा-निलेखनं वा नो कुर्यान, तथा 'उबलेज्ज वा उव्वट्टिज्ज वा' उदवलेद वा, उद्वर्तनवद् नोदवर्तनं कुर्यात, नापि तदेव ईषच्छुष्कमुद्वर्त येद् वा 'आयाविज वा पयाविज्ज वा' नापि तत्रस्थित एव आतापयेद् वा नो सकृद आतापनं कुर्यात्, नापि पौन्यः पुन्येन प्रतापयेद् वा, तथाकरणे संयमात्म विराधनास्यादिति तस्मात्तन्न कुर्यादिति भावः। अथ यस्कुर्यात्तदाह-'से पुवामेव अप्पससरक्खं तणं वा' स भिक्षुः पूर्वमेव तदनन्तरमेव पूर्वोक्तम् अल्परजस्कम् अल्परजोयुक्तम् तृणं या 'पत्तं वा फर्स्ट वा सकरं वा जाइज्जा' पत्रं वा काष्ठं वा शकेरां वा प्रस्तरशकलम् याचेत 'जाइत्ता से तमायाय एगंतमवकमिज्जार' याचिखा स भिक्षुकः तम् आदाय-अल्परजस्कशरीरको 'णोआमज्जि ज्जवा पमज्जिज्जवा' एकबार या अनेक पार प्रमार्जन नहीं करे अर्थात् उस काय में लिप्तमलमूत्रकर्दमादि को नहीं प्रक्षालित करे इसी तरह उस स्थिति में वहां पर रहते 'संलिहिज्ज वा' सलेखन और 'विलिहिज्ज वा' विलेखन भी नहीं करे एवं 'उव्वलेज्ज वा उव्वद्विज्ज वा' उदवलन और उवर्तन भी नहीं करे तथा 'आयाविज्ज वा' आतापन और ‘पयाविज्ज चा' प्रतापन भी एकषार या अनेकवार नहीं करें क्योंकि ऐसा करने से संयम और आत्मा की विराधना होगी इसलिये साधु और साध्वी वैसा नहीं करे, अब भिक्षालेने जाने के लिये दूसरे मार्ग के नहीं रहने पर यदि वनादि से पुक्त उबडखाबड टेढ़े मेढे मार्ग से ही जाने के कारण मार्ग के मध्य में स्खलने या गिर पडने से मलमूत्रकर्दमादि से उपलिप्त शरीर को किस तरह साफसुथडा साधु और साध्वी करे यह बतलाते हैं-'से पुण्यामेव अप्प ससरक्ख' वह पूर्वोक्त साधु और साध्वी अनन्तर पूर्वके कथनानुसार थोडे हीरज धूलि से युक्त 'तणंवा तृण सूखा घास या 'पत्तया' पता या 'कटुंवा' काष्ठ या 'सकरवा' पत्थर का टुकडा 'जाइज्जा' माङ्गले विमना ५४ ४२५॥ नही. तथा 'उत्रलिज्ज वा उव्वट्टिज्ज वा' उन तय न ५। १२ नही' तथा 'आयाविज्ज वा पयाविज्जा वा' मातापन भने प्रतापन सेवा२३ અનેક વાર ન કરવું કેમ કે એમ કરવાથી સંયમ અને આત્માની વિરાધના થશે તેથી સાધુ કે સાચવીએ તેમ કરવું નહીં. હવે ભિક્ષા લેવા માટે અન્ય માર્ગના અભાવે જે વપ્રાદિવાળા માર્ગેથી ખાડાટેકરા અને વાંકાચૂકા માર્ગેથી જ જવાને કારણે રસ્તામાં લપસવાથી કે પડી જવાથી મલમૂત્ર કાદવ વિગેરેથી ખરડાયેલ શરીરને કઈ રીતે સાધુ સાધ્વીએ સાફ કરવું તે સૂત્રકાર બતાવે છે. 'से पुवामेव अप्पससरक्ख तणं वा' ते पूर्वात साधु मने सपी A G५२ । प्रमाणे यी ४ धूमथी युत सुई घास डाय अथवा 'पत्तं या कहूँ वा सकरं वा जाइज्जा' पाना हाय अथ41 at पत्थरने टुभाग से 'जाइत्ता से तमायाय एगतमवमिज्जा' भने ते भान में पति साधु म. सापामे सु॥ पास विरेने श्री. साय॥॥ सूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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