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________________ १२२ आचारांगसूत्रे प्ररखलन् वा प्रपतन वा षण्णाम् अप्पकायादीनामन्यतमं विराधयेद, अप्कायादिषट्त्सु अन्यतमस्य विराधनां करिष्यति, एवं 'तत्व से काए' तत्र वादियुक्ते मार्गे प्रचलनादिकं कुर्वतस्तस्य भिक्षुकस्य कायः शरीरम् 'उच्चारेण वा' उच्चारेण वा-पुरीषेण 'पासवणेण वा' प्रस्रवणेन वा मत्रोत्सर्गेण 'खेलेन वा' श्लेष्मणा वा कफेन 'सिंघाणेण वा' सिंघानेन वा-नासिकामलेन या यंतेन वा वान्तेन वा वमनरूपेण 'पित्तेण वा पितेन वा 'पूरण वो पूयेन वा पूतिरूपेण 'सुक्केण वा' शुक्रेण वा वीर्यरूपेण 'सोणिएण वा' शोणितेन वा रूधिररूपेण 'उवलित्ते सिया' उपलिप्तः स्यात्, तस्मात्, इत्थंभूतेन यथा न गन्तव्यमिति भावः । यदि तु मार्गान्तराभावात् तेनैव वादियुक्तमार्गेण गतः सन् प्रस्खलितः स्यात्तर्हि कर्दमाद्युपलिप्तशरीरः सन् नैवं कुर्यादित्याह-'तहप्पगारं कायं तथाप्रकारम् अशुचि उच्चाराधुपलिप्तं कायं शरीरम् ‘णो अणंतरहियाए पुढवीए' नो अनन्तर्हितया अव्यवहितया पृथिव्या, एवं प्रस्खलित-पिछड़ जायगा या गिरजायगा और ‘से तत्थ पयलेमाणे वा पक्खलेमाणे चा पवडमाणे वा' यह साधु वहां पर-प्रचलित-कम्पित होता हुआ या प्रस्खलित होता हुआ तथा गिरता हुआ अप्काय वगैरह छे कायों में किसी भी एक काय की विराधना करेगा और 'तत्थ से काए उच्चारेण वा पासपणेण वा' ऊस वादियुक्त मार्ग में गिरते हुए उस साधु का शरीर चाहे मल से या मूत्र से या 'खेलेण या' 'सिंघाणेण वा' कफ से या नाकके मल 'नकटी' से या 'वंतेन वा' वमन 'उल्टी से या 'पित्तण वा पूयेण वा पित्त से या पीप पडा से या 'सुक्केण वा शुक'वीर्य' से या 'सोणिएण था' शोणित से 'उवलित्ते सिया' उपलिप्त हो जायगा इसलिये इस प्रकार के रास्ता से नहीं जाना चाहिये और 'तहप्पगारं कायं' उस प्रकार के काय शरीर को अर्थात् अशुचिमल मूत्र कीचड वगैरह से उपलिप्त देह को 'यो अणंतरहियाए पुढवीए,' अव्यवहित पृथिवी से विना किसी वस्तु के व्यवधान रहित पृथिवी से आमार्जन या प्रमार्जन साफ सुथरा नहीं करे अर्थात दूसरे जय अथवा स५सी पाथी ५७315 14 अथवा 'पवडिज्ज वा' ५ 14 भने से तत्थ पयलेमाणे वा पक्षलेज्जमाणे वा ते साधु त्यो इपित यन म२ सपसतां मया 'पचडमाणे वा' 43 nai अ५४ाय विशेरे ७५९] ४ायनी विराथना थशे भने 'तत्थ से काए उच्चारेण वा पासव गेण वा' मे पाया भामा ५७॥ 24 साधु सालानु शरी२ ४ायितथी २०१२ पेशाथी मया 'खेलेण वा सिंघाणेण वा' ७३था मया सारथी मया 'वंतेन वा पित्तेन वा' GAथी अ॥ पित्तथा 'पृपण या सुक्केण वा पीपथी २५१२ शु४थी अथवा 'सोणिएण वा' ३धीरथी ‘उवलित्ते सिया' ५२ तथा 24 विषम २२ते नपुन नये. अने 'तहप्पगारं काय' की रीत अशुथि भसत्र विशेषथी मायेस शरी२२ ‘णा अणंतरहियाए पुढवीए' 31४५४] वस्तुमा व्यवधान विनानी वीमा सासु न કરવું અર્થાત્ બીમાર્ગ ન હોવાથી એ વપ્રાદિવાળા વિગેરે માર્ગથી જવાથી લપસી જવાના श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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