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________________ १९८२ आचारांगसूत्रे मित्याह-ओघं जलसमूहरूपम् सलिलप्रवेशात्मक द्रव्यौघम् , संसारपक्षे तु आश्रवद्वाररूपं भवौघम्, एवं मिथ्यात्यादिरूपम् अपारसलिलं बोध्यम् अत एव संसारोऽयं दुस्तरो बोध्यः इत्येवं दुस्तरं संसारं तीर्थकृतो भगवन्तः गणधरप्रभृतयो वा आहुः- उक्तवन्तः, तस्मात् 'अहे य णं परिजाणाहि पंडिए, से हु मुणी अंतकडेत्ति वुच्चइ' अथ च खलु तस्मात् कारणात् एनम्संसारम् हे शिष्य ! परिजानीहि-त्वं ज्ञप्रज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानप्रज्ञया प्रत्याचव, प्रत्याख्यानं कुरु, एनं संसार समुद्रं परिहर इत्यर्थः, स किल भावसाधुः पण्डितः-सदसद्विवेकज्ञः मुनिः अन्तकृत्-कर्मणोऽन्तकृदुच्यते इति भावः तथा च महासमुद्रवत् संसारार्णवोदुर्गमदुस्तुरश्च वर्तते तस्मात् हे शिष्य ! त्वम् एतत्संसारस्वरूपं ज्ञप्रज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानप्रज्ञया तस्य परित्यागं भाशैध बतलाया है एवं मिथ्यात्वादि रूप अपारसलिल कहा है इसलिये यह संसार अत्यन्त दुस्तर माना जाता है इस प्रकार इस संसार रूप समुद्र को भग. वान् श्री महावीर स्वामी ने दुस्तर कहा है अथवा गौतमादि गणधरों ने इस संसार रूप समुद्र को उक्त रीति से दुस्तर बतलाया है इसलिये 'अहेय णं परिजाणासि पंडिए से मुणी अंतकडेत्ति बुच्चई' हे शिष्य ! तुम इस संसार को ज्ञप्रज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा से प्रत्याख्यान करो याने इस संसार रूप समुद्र को दुस्तर समझकर छोड दो, क्योंकि वह निग्रन्थ जैन साधु पण्डित याने सदसद विवेकज्ञ होता है अर्थात् कौन अच्छा है और कौन बुरा है ऐसा जान ने वाला होता है इसलिये वह जैन मुनि महात्मा अन्तकृत याने कर्म को अन्त करनेवाला कहलाता है अर्थात् महा समुद्र के समान यह संसारार्णव अत्यन्त दुस्तर माना जाता है इसलिये हे शिष्य ! तुम इस संसार के स्वरूप को ज्ञप्रज्ञा से जानकर प्रत्याख्यान प्रज्ञा से उस का परित्याग कर दो, इस प्रकार से 'महासमुदंव भूयाहि दुत्तरं' मखर वा२३५ सपो म छ, तथा भियावा३५ अपार સલિલવાળે કહેલ છે. તેથી આ સંસારને અત્યંત દુસ્તર માનેલ છે, આ રીતે આ સંસાર રૂપ સમુદ્રને વીતરાગ ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીએ દુસ્તર કહેલ છે. અથવા ગૌતમાદિ ગણુધરેએ આ સંસારરૂપ સમુદ્રને ઉક્ત પ્રકારથી દુસ્તર કહેલ છે. તેથી હે શિષ્ય! તમે આ સંસારને જ્ઞપ્રજ્ઞાથી જાણીને તેનું પ્રત્યાખ્યાન કરો અર્થાત્ આ સંસારરૂપ સમુદ્રને દુર समलने छोsी है। भले 'अहेय णं परिजाणाहि पंडिए' से नियन्यमुनि ५डित अर्थात સદસદ વિવેકજ્ઞ કહેવાય છે અર્થાત્ શું સારું છે અને શું ખરાબ છે. તે સમજનાર હોય छे. तेथी से हु मुणी अंतकडे त्ति वुच्चइ ॥ १० ॥' ये नियन्थमुनि मतकृत अर्थात् ४म અંત કરવાવાળા કહેવાય છેઅર્થાત્ મહાસમુદ્રની જેમ આ સંસાર સાગર અત્યંત હુસ્તર માનેલ છે. તેથી હે શિષ્ય! તમે આ સંસારના સ્વરૂપને જ્ઞપ્રજ્ઞાથી જાણુને પ્રત્યા श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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