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आचारांगसूत्रे धर्मात् जैनधर्माद् भ्रश्येत्-भ्रष्टो भवेत्, अथ च 'न सका गंधमग्घाउ नासाविसयमागयं' न शक्यम् गन्धम् अघ्रातुम् नासाविषयम-आगतम्-घ्राणगोचरीभूतं गन्धं सुरभिम् असुरभि वा अघातुं न शक्यम्, घ्राणविषयीभूतो गन्धः अवश्यमेव घ्राणग्राहयो भवतीति भावः किन्तु 'रागदोसा उ जे तत्य, ते भिक्खू परिवज्जर' रागद्वेषौ तु यौ तत्र-घ्राणग्राह्यगन्धविषये उत्पद्यते तौ-गन्धविषयकरागद्वेषौ भिक्षुः-साधुः परिवर्जयेत्-परित्यजेदिति भावः, तृतीयभावना वक्तव्यसारमुपसंहरनाह-'घागो जोवो मणुनामणुनाई गंधाई अग्घायइत्ति' घ्राणत: नासिकया नासिकाभ्यां वा जीवो मनोज्ञामनोज्ञान् गन्धान आजिघ्रति-आघ्राणं करोतिहोता है याने चारित्र समाधि रूप शांति का भंग करता है एवं यावत् ब्रह्मचर्य रूप शान्ति का विभंग कारक भी माना जाता है तथा शान्तिपूर्वक केवल. ज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी के द्वारा प्रतिपादित जैनधर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है और 'न सका गंधमग्घाउं नासाविसयमागयं सुरभि असुरभि गन्धों को जो कि प्राण-नाक का गोचरीभूत हो गया है, नहीं सूंघ सकते यह भी नहीं कहा जा सकता याने नाक के गोचरीभूत गन्धों को अनिवार्य रूप से सभी को सूंघना ही पड़ता है इसलिये 'रागदोसा उ जे तत्थ' अनिवार्यरूप से घ्राण नाक के विषय होनेवाले उन सुरभि असुरभि गन्धों के विषय में जो रागद्वेष उत्पन्न होते हैं 'ते भिक्खू परिवज्जए' उन घ्राण ग्राह्य गन्ध के विषय में उत्पन्न होनेवाले रागद्वेष को जैन साधु छोड दे। इस प्रकार उक्त तृतीय भावना के वक्तव्यता का सार बतलाते हुए उपसंहार के रूप में कहते हैं कि 'घाणओ जीवा मणुण्णामणुणाई' एक नासिका से या दोनों नासिकाओं से जीव सभी प्राणी मनोज्ञामनोज्ञ अर्थात् प्रिय अप्रिय रूप 'गंधाइं अग्याइत्ति' सुरभि अस्तुरभि गन्धों को सूचता है इसलिये जैन साधु निर्ग्रन्थ को सुरभि તથા શાંતિ પૂર્વક કેવળજ્ઞાની ભગવાન શ્રી મહાવીરસ્વામીએ પ્રતિપાદન કરેલ ધર્મથી
अष्ट थाय छे. अने 'न सक्का गंधमग्घाउं नासाविसयमागयं' सुश हु न । જે નાકના ગોચરી ભૂત થયેલ હોય તે ન સૂંઘ તેમ પણ બની શકતું નથી એટલે કે નાકમાં પ્રવેશેલ ગંધને અનિવાર્ય પણાથી દરેકને સુંઘવા જ પડે છે. તેથી અનિવાર્ય पाथी न विषय ३५ मे सुगध - धोना विषयमा २ 'राग दोसा उ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जए' रागद्वेष थाय छे से प्राण ग्राहब अपना समयमा 4-1 2414 રાગદ્વેષને જૈન મુનિએ છેડી દે આ રીતે આ ત્રીજી ભાવનાના કથનને સાર બતાવતાં सूत्र४।२ ६५सहा२ ३५ ४. छ. -'घाणओ जीवो मणुन्नामणुन्नाई गंधाई अग्घा इत्ति तच्चा भावणा' से नथी 2441 मन्ने थी ०१ अर्थात् सा प्रालियो भनाज्ञाમનેશ એટલે કે પ્રિય અપ્રિય રૂ૫ સુગંધ દુર્ગને સૂંઘે છે તેથી નિગ્રંથ મુનિએ સુરભિ અસુરભિ ગંધને અનિવાર્ય પણાથી નાકને વિષય થતાં પણ ઘાણગ્રાહ્ય એ સુગંધ
श्री मायारागसूत्र :४