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आचारांगसत्रे नासक्तो भवेदिति भावः 'पढमा भावणा' इति प्रथमा भावना अवगन्तव्या । अथ द्वितीयां भावनां प्ररूपथितुमाह -'अहावरा दुच्चा भावणा' अथ-प्रथमभावनाप्ररूपणानन्तरम् अपरा-- अन्या द्वितीया भावना प्ररूप्यते-'चक्खुओ जीवो मणुनामणुनाई रूवाई पासई' चक्षुषा चक्षुभ्यां वा जीवः- प्राणी मनोज्ञामनोज्ञानि-प्रियाप्रियाणि रूपाणि पश्यति, अथ च 'मणु बामणुन्नेहिं रूवेहि सज्जमाणे' मनोज्ञामनो.:-प्रियाप्रियः रूपैः-प्रियाप्रियरूपेषु इत्यर्थः सज्जमान:-आसक्तो भवन् 'जाव विणिघायावज्जमाणे' यावत्-रज्यन् अनुरक्तो भवन, गृध्यन्-गृथ्नन्-गर्धा कुर्वन्नित्यर्थः मुह्यन्-मोहं प्राप्नुवन् अध्युपपद्यमान:- अत्यन्तासक्तः सन् सर्वथाही प्रिय अप्रिय शब्दों को सुनने के लिये आसक्त नहीं होना चाहिये इस प्रकार सर्वविध परिग्रह परित्याग रूप 'पढमा भाषणा' पश्चम महावत की यह पहली भावना समझनी चाहिये। ____ अब उसी पश्चम सर्वविध परिग्रह परित्याग रूप महाव्रत की दूसरी भावना का निरूपण करने के लिये कहते हैं-'अहावरा दुच्चा भावणा' अथ सर्वविध परिग्रह परित्याग रूप पश्चम महावत की प्रथम भावना के निरूपण करने के बाद अब उसी सर्वविध परिग्रह परित्याग रूप पश्चम महानत की अपरा अन्या दूसरी भावना का निरूपण करते हैं कि-'चक्खुमो जीवा मणुन्नामणुन्नाई रुवीई पासई' एक आंख से या दोंनो आंखों से जीव प्राणो प्रिय अप्रिय रूप मनोज्ञामनोज्ञ रूपों को देखता है और उन 'मणुन्नामणुन्नेहिं स्नेहिं सज्जनाणे' मनोज्ञामनो. ज्ञ रूप प्रिय अप्रिय रूपों में आसक्त होता हआ 'जाव विणिघायमावज्जमाणे यावत् अनुरक्त होता हुआ तथा गर्धा अर्थात उन रूपों के लिये लोभ करता हुआ एवं उन रूपविषयक मोह को प्राप्त करता हुआ और उन रूपों में अत्यन्त आसक्त होता हुआ विनिर्घात को प्राप्त करता हुआ याने रागद्वेष से वशीभूत ળવા માટે સર્વથા આસક્ત થવું નહીં આ પ્રમાણે સર્વવિધ પરિગ્રહ પરીત્યાગરૂપ “પઢમાં भावणा' पायमा महानतनी पसी भावना सभी
હવે એ પંચમા સર્વવિધ પરિગ્રહ પરિત્યાગરૂપ મહાવ્રતની બીજી ભાવનાનું નિરૂપણ ४२१॥ भाटे ४७ छ–'अहावरा दुच्चा भावणा' अवविध परियाई परित्या।३५ पायमा મહાવ્રતની પહેલી ભાવનાનું નિરૂપણ કરીને હવે એ સર્વવિધ પરિગ્રહ પરિત્યાગરૂપ પાંચમાં महानतनी भी मानानु नि३५९४ ४२वामां आवे छे.-'चक्खुओ जीवो मणुन्नामणुन्नाई रूवाई पासइ' माथी ७१ प्रिय मप्रिय ३५ अर्थात भनाज्ञामना। ३पाने गुर छ. मन थे 'मणुन्नामणुन्नेहिं रूवेहिं सज्जमाणे जाव' भनाज्ञामना ३५ प्रिय प्रिय ३यामा भासत થઈને યાવત્ અનુરક્ત થઈને તથા ગર્ધા અર્થાત્ એ રૂપ માટે લેભ કરીને અને એ રૂપ सपी मोड प्राप्त शने मन से ३मा मत्यत यासत ने 'विणिघायमावज्ज माणे संतिभेया जाव भंसिज्जा' विनित प्रारीने २र्थात् रागद्वेपन १॥ ५४२ विनाश
श्री सागसूत्र :४