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________________ - - मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ रु. १० अ. १५ भावनाध्ययनम् भवन् 'संति भेया संतिविभंगा' शान्तिभेदकः-अपरिग्रहविषयकशान्ति भेदकः स्यात्, तथा शान्तिविमञ्जक:-शान्तिरूपापरिग्रहवतविभङ्गकारकः स्यात, एवं 'संति केलिपन्नत्ताओ धग्माओ भसिज्जा' शान्तितः केवलिप्रज्ञप्ताद्-शान्तितः केवलज्ञानि तीर्थकृत् प्रतिपादितात धर्माद-जैनधर्माद् भ्रश्येत्-भ्रष्टो भवेदिति भावः, अथ च 'न सका न सोउ सदा सोतविसयमागया' न शक्या:-असंभवाः न श्रोतुं शब्दाः कर्णतः शब्दश्रवणं सर्वेषामनिवार्यम् श्रोत्रविषय मागताः कर्णगोचरत्वं प्राप्ताः सन्तः अवश्य मेव शब्दाः कर्णगोवराः भवन्ति इत्यार्थ तम्मात् सर्वेषां शब्दश्रवणस्यानियित्वात् 'रागदोसाउ जे तत्थ, ते भिक्ख परिवज्जिए' रागद्वेषौ तु यौ तत्र-शब्दश्रवणे उत्पधेते तौ-रागद्वेषौ भिक्षुः साधुः परिवर्जयेत् परित्यजेन्, यतः 'सोयो जीवे मणुनामणुनाई सद्दाई सुणेई श्रोत्रत:-कर्णतः जीव:-प्राणी मने ज्ञामनोज्ञ न्प्रियाप्रियान् शब्दान् शणोति, अतएव संयमशीलः साधुः सर्वथैव प्रियाप्रियशब्दान् श्रोतुं करता हुआ और प्रिय अप्रिय शब्दों में अत्यन्त आसक्त होता हुआ 'संतिभेया संतिविभंगा' शान्ति भेदक होता है अर्थात् धनधान्यादि परिग्रह परित्याग विष. यक शान्ति का भंग करनेवाला होता है एवं शान्ति रूप अपरिग्रह व्रत का विभंग कारक भी होता है तथा 'संति केवलीपण्णत्ताओ' शान्ति के लिये केवलज्ञानी भगवान् श्री महावीर स्वामी से प्रतिपादित 'धम्माओ भंसिज्जा' जैन धर्म से भ्रष्ट भी हो जाता है और 'नो सका न सोउ सहा सोतविप्लयमागया' कानों में आये हुए शब्दों को नहीं सुनेंगे ऐसा नहीं हो सकता, अर्थात् कानों में आये हुए शब्दों को सभी सुनते हैं इसलिये 'तम्हा रागदोसन जे तत्थ' सभी लोगों के लिये शब्दों को सुनना अनिवार्य होने से उन शब्दों को सुनने में जो राग द्वेष पैदा होता है 'ते भिक्खू परिवज्जिए' उन रागद्वेष को जैन साधु छोड दे क्योंकि 'सोयओ जीवे' जीव प्राणी कानों से 'मणुण्णामणुण्णाई सद्दाइं सुणेइ' प्रिय अप्रिय शब्दों को सुनता है इसलिये संयम का पालन करने वाले साधु को અથત ધનધાન્યાદિ પરિગ્રહ પરિત્યાગ સંબંધિ શાંતિને ભંગ કરનાર બને છે, અને 'संति विभंगा संति केवलि पण्णत्ताओ धम्माओ भंसिज्जा' धन धन्या परिनपरित्या સંબંધી શાંતિના ભંગથી શાંતિરૂપ અપરિગ્રહ વ્રતને ભંગ કરવાવાળા બને છે. તથા શાંતિ માટે કેવળજ્ઞાની ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીએ પ્રતિપાદન કરેલ જૈન ધર્મથી પણ भ्रष्ट थाय छे, मने 'न सका न सोउ सदा' नाम आता ही नही समजी तम मनतु नथी अर्थात 'सोतविसयमागया' भानामां आवे हो मा ५ सालणे छ तथा मान भाट शो समय मनिवार्य पाया 'तम्हा रागदोसाउ जे तत्थ ते भिक्खू परिवज्जिए' तेथी शो सलामी रागद्वेषन निन्य साधुसे छोड़ी हेवा, भ3-'सोयओ जीवे मणुग्णामणुण्णाई सदाइं सुणेइ' माथी ०१ प्रियमप्रिय શબ્દોને સાંભળે છે, તેથી સંયમનું પાલન કરવાવાળા સાધુએ પ્રિયઅપ્રિય શબ્દોને સાંભ श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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