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आचारांगसूत्रे क्षेत्रकालमर्यादारूप नावगृहाति तर्हि एतावता 'अणुग्गहणसीले अदिन्नं ओगिहिज्जा' एता. वता-उक्तरीत्या अन ग्रहणशील:-क्षेत्रकालावग्रहशीलरहितो निर्ग्रन्थः अदत्तम् वस्तु अवगृहोयात्, तथा च संयमविराधना स्यात्, तस्मात् 'निग्गंथेणं उग्गहंसि उग्गहियंसि' निग्रन्थेन अयग्रहे-क्षेत्र कालमर्यादारूपे अवग्रहे अवगृहीते सत्येव वर्तितव्यम्, तत्फलितमाह-'एतावताव उग्गहणसीलएत्ति तच्चा भावणा' एतावता-पने न उक्तप्रकारेण निग्रेन्यः सर्वथा अवग्रहण शीलः स्यादिति तृतीया भावना अवगन्तव्या, अथ चतुर्थी भावना प्ररूप्यते-'निग्गंथेणं ही स्थान में और जितने ही काल तक ठहरने के लिये आप की अनुमति होगी इस प्रकार उपाश्रय के मालिक वगैरह से स्थान रूप क्षेत्रावग्रह और काल रूप कालावग्रह की आज्ञा लेकर रहना चाहिये, 'एतावता वे उग्गहण सीलए सिया' जैन साधु मुनि महात्मा के अवग्रहणशील अवश्य होना चाहिये, 'केवलीया' केवलज्ञानी वीतराग भगवान् श्रीमहावीरस्वामी कहते हैं कि-'आयाणमेयं यह वक्ष्यमाण रूप से अनवग्रहण याने अवग्रह नहीं ग्रहण करना, आदान-अर्थात् कर्मबन्ध का कारण माना जाता है क्योंकि 'निग्गंथेणं उग्गहंसि अणुग्गहियंसि' निग्रंथ जैन साधु यदि उक्त अवग्रहद्वय को याने क्षेत्रावग्रह और कालावग्रह को नहीं स्वीकार कर रहता है तो 'एतावता अणु ग्गाणसीले सिया' उक्त रीति से क्षेत्र काल मर्यादा का अवग्रहशील से रहित होकर अदत्त वस्तु को भी ग्रहण करलेगा अर्थातू उपाश्रय में अधिक स्थान को भी ग्रहण कर लेगा इमी प्रकार अधिक काल तक भी उस उपाश्रय में ठहरेगा याने जितने काल तक ठहरने की अनुमति नहीं भी मिली है उतने स्थान और उतने काल तक भी उस उपाश्रय में ठहरेगा, सो ठीक नहीं क्योंकि इससे सयम કે જેટલા સ્થાન માટે અને જેટલા કાળ માટે રહેવાની આપની સંમતિ મળશે. આ પ્રમાણે ઉપાશ્રયના અધિકારી સ્વામી વિગેરેની પાસે સ્થાનરૂપ ક્ષેત્રાવગ્રહ અને ४॥ ३५ ॥७॥डनी माज्ञा सन १ पाश्रयमा २२ 'एतावताव उग्गहणसीलए सिया' सतावता मुनिये Aqsale ५१श्य यवु नये 'केवलीवृया आयाणमेयं' કેવળજ્ઞાની ભગવાન શ્રી મહાવીર સ્વામીએ કહ્યું છે કે આ વર્યા માણ રીતનું અનવગ્રહણ अर्थात् म न सेवा ते माहान-मर्थात् ४मधनु ४२५ भनाय छे. 343-'निग्गं थेणं उग्गहसि अणुग्गहियंसि' निन्य जैन मुनि प्र४२ना मे २०१हने मेट क्षेत्रावर मने दावडनी स्वी२ ४ २ ० निवास ४२ तेएतावता अणुग्गहणसीले सिया' x २थी क्षेत्रास माहाना सवड शाख १२ र 'अदिण्णं ओगि બ્રિકા’ અદત્ત વસ્તુને પણ ગ્રહણ કરી લેશે. અર્થાત ઉપાશ્રયમાં વધારે સ્થાનને પણ ગ્રહણ કરીલે એ જ રીતે વધારે કાળ પર્યન્ત પણ એ ઉપાશ્રયમાં રહી જશે. એટલે કે જેટલા સ્થાનની અને જેટલા કાળ સુધી રહેવાની અનુમતિ ન મળી હેય એટલા સ્થાન
श्री सागसूत्र :४