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________________ ११२६ आचारांगसूत्रे गहीं करोमि व्युत्सृजामि-आत्मानं तस्माद् अदत्तादानात् पृथक् करोमीत्यर्थः सम्प्रति तस्य तृतीयमहाव्रतस्य अदत्तादानविरमणस्य पञ्च भावनाः प्ररूपयितुमाह-'तस्सिमा भो पंचभावणाओ भवंति' तस्य तृतीयमहाव्रतस्य इमाः-वक्ष्यमाण स्वरूपाः पञ्च भावना भवन्ति 'तथिमा' पदमा भावणा' तत्र-पञ्चभावनासु इयम्-वक्ष्यमाणस्वरूपा प्रथमाभावना बोध्या तथाहि 'अणुवीइ मिउग जाई से निग्गंथे' यः अनुविचिन्त्य-विचार्य मितावग्रहयाची-परिमितावग्रह याचते-मर्यादापूर्वकम् अवग्रहस्य यावनां करोति स निर्ग्रन्थ:-साधुरुच्यते 'नो अणणुवीइमि. अदत्तादान की निन्दा करता हूं और गुरुजन को साक्षिता में उस अदत्तादान की गहीं करता हूं और व्युत्कृष्ट करता हूँ अर्थात् अपने प्रात्मा को उस अदत्तादान से अलग करता हूं इस प्रकार अदत्तादान विरमण रूप तृतीय महाव्रत का स्वरूप समझना चाहिये, ___अब उसी अदत्तादान विरमण रूप तृतीय महावत की वक्ष्यमाण रूप से पंच भावनाओं का प्रतिपादन करने के लिये कहते हैं-'तस्प्तिमाओ पंच भाव णाओ भवंति' उस अदत्तादान विरमण रूप तृतीय महावत की इस प्रकार वक्ष्यमाण रूप से पंच भावनाए होती हैं-'तथिमा पढमा भावणा' उन वक्ष्य माण पंच भावनाओं में यह पहली भावना निम्न रीति से समझनी चाहिये जैसे कि-'अणुवोइ मिउग्गहं जाई से निग्गंथे' जो साधु अनुविचिन्त्य याने विचार करके परिमित अवग्रह का याचक है अर्थात् विचारपूर्वक ही इतना हो स्थानशयनादि करने के लिये मुझे चाहिये इस तरह परिमित सीमित क्षेत्र रूप अवग्रह याने स्थान की याचना करता है एवं इतना काल तक मैं यहां रहूंगा इस प्रकार कालावग्रह की याचना करता है वही सच्चा साधु निर्गन्ध माना जाता है किन्तु ‘णो अणणुबीई मिउग्गहं जाई से निग्गंथे' जो साधु विचार किये છું. અને ચુસૂષ્ટ કરું છું અર્થાત્ પિતાના આત્માને એ અદત્તાદાનથી અલગ કરું છું આ પ્રમાણે અદત્તાદાન વિરમણરૂપ ત્રીજા મહાવતનું સ્વરૂપ સમજવું. હવે એજ અદત્તાદાન વિરમણ રૂ૫ ત્રીજા મહાવ્રતની વફ્ટમાણ રીતે પાંચ ભાવनासानु प्रतिपादन ४२वामा मावे छे.-'तस्सिमाओ पंच भावणाओ भवंति' से महत्ताहीन વિરમણરૂપ ત્રીજા મહાવ્રતની આ પ્રમાણે વયમાણ પ્રકારથી પાંચ ભાવનાઓ થાય છે. से पांय भावनाम 'तथिमा पढमा भावणा' मा पक्षी माना निम्नात हाथी समवी. 'अणुवीई मिउग्गई जाई से निग्गंथे' रे साधु विया पूर्व परिमित अपनी યાચના કરવાવાળા હોય છે. અર્થાત્ વિચારપૂર્વક જ આટલું જ સ્થાન શયનાદિ માટે મને જોઈએ એ પ્રમાણે સીમિત ક્ષેત્રરૂપ અવગ્રહ અર્થાત સ્થાનની યાચના કરે છે. તથા આટલા કાળ પર્યન્ત હું અહીં રહીશ એ રીતે કાલાવગ્રહની યાચના કરે છે એજ સાચા निय सा५ ४पाय छ. ५२'तु णो अणणुवीई मिउग्गहं जाइ से निग्गंथे' रे साधु पियार श्री सागसूत्र :४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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