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________________ मर्मप्रकाशिका टीका श्रुतस्कंध २ सू. १ अ. १४ पारस्परिक क्रियानिषेधः ९९३ ज्जिज्ज वा पमज्जिज्ज व।' स- साधुः अन्योन्यम् - परस्परम् पादौ चरणौ आमृज्याद् वा प्रमृज्याद् वा, ईषद्वा मार्जनम् अधिकं वा मार्जनं कुर्यात् तर्हि 'नो तं सायए नो तं नियमे' वो ताम् परस्परपादादि प्रमार्जनक्रियाम् मनसा अभिलषेत्, नो वा ताम्- अन्योन्यपादादि प्रमार्जनक्रियाम् कर्तुं नियमयेत् प्रेरयेत् - वचसा कर्तुं न कथयेत् कायेन वा विधातु ं न व्यापारयेत् इति भावः, सम्प्रति त्रयोदशाध्ययने प्ररूपितां सर्वामपि परकियामतिदिशन्नाह - 'से. नहीं करें और काय से भी हस्तादि चेष्टा द्वारा उसके लिये इशारा नहीं करें क्योंकि इस प्रकार के परस्पर क्रिया रूप परक्रिया भी पापकर्मों का उत्पादक मानी जाती है इसलिये स्थविरकल्पिक साधु को परस्पर क्रिया नहीं करनी चाहिये याने उक्त परस्पर क्रिया का मन वचन और तन से समर्थन नहीं करना चाहिये क्योंकि संयम पालन करने वाले साधु को ऐसा करने से संयम की विराधना होगी, अब परस्पर क्रिया विशेष का भी प्रतिषेध करते हैं- “ से अन्नमन्नं पाए आमज्जिज्ज वा, पमज्जिज्ज वा, नो तं सायए, नो तं नियमे" वह पूर्वोक्त स्थ for afore साधु अन्योन्य- परस्पर पादों को याने परस्पर में चरणों को आमार्जन करें या प्रमार्जन करें अर्थात् एकबार या अनेकवार प्रमार्जन करें तो उस को अर्थात् परस्पर पादादि प्रमार्जन क्रिया को वह साधु आस्वादे नहीं, अर्थात् मन में उसकी अभिलाषा नहीं करे और वचन से भी उस का अनुमोदन नहीं करें तथा काय से भी उस का समर्थन नहीं करें अर्थात् परस्पर क्रियमाण पादादि प्रमार्जन क्रिया को पापकर्मों का उत्पादक होने से मन वचन और काय से समर्थन नहीं करना चाहिये, अब त्रयोदश अध्ययन में बतलाये हुए सभी परक्रिया विशेषों का इस નહીં' તથાકાયથી હસ્તાદિના ઇશારાથી તેમ કરવા ચેષ્ટા કરવી નહીં. કેમકે આ પ્રકારની પરસ્પરની ક્રિયાને પણ પાપકપ ક્રિકા માનેલ છે. તેથી સ્થવિર કલ્પિક સાધુએ પારસ્પરિક ક્રિયા કરવી નહીં. અર્થાત્ ઉક્ત પારરપરિક ક્રિયાનું મન વચન અને કાયાથી સમન કરવુ' નહી', કેમકે સંયમનુ પાલન કરવાવાળા સાધુએ તેમ કરવાથી સંયમની વિરાધના થાય છે. हवे परस्पर डिया विशेषना निषेध हरे छे. - ' से अन्नमन्नं पाए आमज्जिज्ज वा, पमज्जिज्ज वा' ते पूर्वोक्त स्थविर साधु परस्परना भगोने थेटते हैं भीलना यगोने આમન કરે કે પ્રમાન ન કરે અર્થાત્ એકવાર કે અનેકવાર લુછાલુછ કરે તો નો સં સાય' તેનું અર્થાત્ પરસ્પર પાક્રાદિના પ્રમાન ક્રિયાનું સાધુએ આસ્વાદન કરવું નહીં . अर्थात् भनभां तेनी इच्छा अरवी नहीं, तथा 'नो तं नियमे' मते वयनथी पशु तेनुं समर्थन કરવું નહીં. અર્થાત્ પરસ્પર કરાડી પાદાદિ પ્રમાન ક્રિયા પાપકર્માંત્પાદક હોવાથી મન વચન અને કાયથી પણ તેનું સમન કરવુ નહીં'. હવે તેરમા અધ્યયનમાં બતાવવામાં આવેલ બધી જ પરક્રિયા વિશેષાના આ ચોદમા आ० १२५ श्री खायारांग सूत्र : ४
SR No.006304
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 04 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1979
Total Pages1199
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size83 MB
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