SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 588
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२६ आचारागसूत्रे टीका-'अचित्त'-मित्यादि. स मुनिः, अचित्तम्-प्राणिशून्यं प्रासुकं स्थण्डिलं समासाद्य प्राप्य तत्र स्थण्डिले आत्मकं स्वात्मानं स्थापयेत् । तत्र स्थितः परिहतचतुर्विधाहारो गिरिरिवाऽप्रचलितो विहितप्रत्युपेक्षणादिपरिकर्मा सन् सर्वशः= सर्वभावेन कायं शरीरममत्वं व्युत्सृजेत्-परित्यजेत् । यदि तं शरीरपरीषहोपसर्गा अभिभवेयुस्तदा स चेतस्येवं चिन्तयेदित्याह-'न मे' इत्यादिना, मे मम देहे शरीरे परीषहाः तत्र समुत्पन्नाः-अनुक्ल-प्रतिकूला न सन्ति, यतो देहोऽपि मदीयो नास्ति कथं तत्सम्बन्धिनः परीपहा मामभिभवेयुः, तद्विहितवेदनाया अननुभवादित्याशयः ॥२१॥ __वह मुनि प्राणिशून्य-प्रासुक स्थण्डिल-स्थान प्राप्तकर वहां अपनेको स्थापित करे, अर्थात् वहां ठहर जावे। चतुर्विध आहारका परित्यागी एवं पर्वतके समान अचल वह साधु उस भूमिका संमार्जन आदि परिकर्म कर उस पर अपना घासका संथारा करे, इत्यादि समस्त पूर्वोक्त विधि कर वह साधु सर्वभावसे शरीरका ममत्व छोड देवे। उस समय यदि उसे परीषह और उपसर्ग उपद्रवित करते हैं, तो वह उन सबको, चित्तमें इस प्रकारके विचारसे सहन करे कि "देहे परीषहाः" ये अनुकूल और प्रतिकूल परीषह आदि देहमें हैं "न मे" मेरी आत्मामें नहीं हैं. जब देह ही मेरा नही है तो फिर उस संबंधी ये परीषह आदि मुझे दुःखित या उपद्रवित भी कैसे कर सकते हैं ? क्यों कि इनसे उत्पन्न वेदनाका मुझे तो कोई अनुभव ही नहीं होता है ॥२१॥ તે મુનિ પ્રાણિજ્ય-પ્રાસુક સ્થડિલ-સ્થાન પ્રાપ્ત કરી ત્યાં પોતાને સ્થાપિત કરે, અર્થાત્ ત્યાં રોકાઈ જાય. ચાર પ્રકારના આહારના પરિત્યાગી અને પર્વત સમાન અચલ તે સાધુએ ભૂમિ સાફસૂફ કરી એના ઉપર ઘાસને સંથારે કરે, આ રીતે બધી વિધિ પૂર્ણ કર્યા પછી તે સાધુ સર્વભાવથી શરીરનું મમત્વ છેડી દે. એ સમયે કદાચ તેને પરિષહ અને ઉપસર્ગ ઉપદ્રવ કરે તે તેને थित्तमा । प्रा२॥ विद्यार्थी सङन ४२ है 'देहे परिषहा' म अनुण भने प्रतिकूल परिपड वगेरे हेडमा छ. "न मे" भारी मात्मामा नथी, न्यारे આ દેહ જ મારે નથી તે પછી તે સંબંધી આ પરિષહ વગેરે મને ઉપદ્રવિત અથવા દુઃખી પણ કેમ કરી શકે? કેમકે આનાથી ઉત્પન્ન વેદનાને મને તે मनुभव ४ नथी थतो. (२१) श्री. मायाग सूत्र : 3
SR No.006303
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages719
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy