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विषय
पृष्ठाङ्क
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१२ कितनेक सम्यक्त्वपतित ज्ञानभ्रष्ट मुनि, द्रव्यतः आचार्यादिको
प्रणाम आदि करते है, परंतु वे भावतः अपनी आत्माको
सम्यक्चारित्ररूप मोक्षमार्गसे भ्रष्ट ही करते रहते हैं । ३२३ १३ सप्तम मूत्रका अवतरण, सप्तम मूत्र और छाया।
३२४ १४ कितनेक परीपहोपसर्गसे आक्रान्त हो जीवनके मोहसे
संयमका परित्याग कर देते हैं, उनका सब कुछ व्यर्थ ही है। १५ अष्टम मूत्रका अवतरण, अष्टम सूत्र और छाया।
३२५ १६ जीवनके सुखके निमित्त जो चारित्रका परित्याग करते हैं
वे पामरजनोंसे भी निन्दित होते हैं, और वे एकेन्द्रियादि दुर्गतिके भागी होते हैं, संयमस्थानसे गिरकर भी वे अपने को पण्डित मानते हुए अपनी प्रशंसा करते हैं और उत्तम साधुओंकी निन्दा करते हैं, उनके ऊपर असत्य दोषोंका आरोप करते हैं । मेधावी मुनिको ऐसा नहीं होना चाहिये । ३२५-३२७ नवम सूत्रका अवतरण, नवम सूत्र और छाया।
३२८ १८ आरम्भार्थी साधु, हिंसाके निमित्त दूसरों को प्रेरित करते
हैं, हिंसाकी अनुमोदना करते हैं। 'तीर्थङ्करोक्त धर्म घोर अर्थात्-दुरनुचरणीय है '-ऐसा मान कर तीर्थंकरोक्त धर्मकी उपेक्षा करते रहते हैं एसे मनुष्योंको तीर्थङ्करोंने विषण्ण अर्थात् कामभोग-मूछित और वितई अर्थात् षड्जीवनिकायोंके उपमर्दनमें तत्पर कहा है।
३२८-३२९ १९ दशम सूत्रका अवतरण, दशम सूत्र और छाया।
३२९ कितनेक जन, मातापिता, ज्ञातिबन्धु और धन-धान्यादिकोंको छोड कर संयम लेते हैं और उस संयमका पालन अच्छी तरह करते हैं, परन्तु बादमें वे ही कर्मदोषवश संयमसे गिर पडते हैं, दीन-हीन हो कर व्रतविध्वंसक हो जाते हैं।
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श्री. मायाग सूत्र : 3