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________________ [४८] विषय पृष्ठाङ्क सकता ! हे शिष्य ! इस धूतवादोक्त ज्ञानका सर्वदा चिन्तन करो। २७४-२७६ ॥ इति प्रथम उद्देश ।। ॥अथ द्वितीय उद्देश॥ १ प्रथम उद्देशके साथ द्वितीय उद्देशका सम्बन्धकथन । प्रथम सूत्रका अवतरण, प्रथम सूत्र और छाया। २७७-२७८ २ इस षड्जीवनीकायरूप लोकको आतुर जान कर, गृहस्थावास को छोड कर, विरतियुक्त होकर ब्रह्मचर्यमें स्थित कितनेक मुनि अथवा एकादश प्रतिमाधारीश्रावक श्रुतचारित्रधर्मके वास्तविकतत्त्वको जानते हुए भी मोहोदयके कारण संयमके पालनमें असमर्थ हो संयमोपकरणका परित्याग कर देते हैं। इनमेंसे कितनेक देशविरत हो कर रहते हैं और कितनेक तो मिथ्यात्वी हो जाते हैं । शब्दादि विषयोंमें ममत्व करनेवाले इन संयम छोडनेवालों में से किततेक अन्तर्मुहूर्त में मर जाते हैं और कितनेक अहोरात्रमें कितनेक इससे अधिक कालमें । इस प्रकार ये भोगार्थी, दुःखसार शब्दादि विषयों में आसक्त हो इस मनुष्य जीवनको व्यर्थ में नष्ट कर डालते हैं। २७८-२८१ ३ द्वितीय मूत्रका अवतरण, द्वितीय सूत्र और छाया। ४ कितनेकमनुष्य संयमी हो कर, संयम ग्रहणके कालसे ले कर संयमानुष्ठान में सर्वदा तत्पर रहते है। ऐसे महा मुनि ही कर्मधूननमें सम्यक् प्रकारसे प्रवृत्ति-शील होते है । २८२-२८३ ५ तृतीय सूत्रका अवतरण, तृतीय सूत्र और छाया। २८२ २८४ श्री माया सूत्र : 3
SR No.006303
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages719
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size37 MB
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