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________________ [ ४७ ] विषय निमित्त प्राणिहिंसा और तज्जनित कर्मबन्ध किया करते हैं । २१ ग्यारहवें सूत्रका अवतरण, ग्यारहवां सूत्र और छाया । २२ आर्च और बहुदुः खयुक्त अज्ञानी मनुष्य, अनेक विध दुष्कर्म करके सोलह प्रकारके रोग आतङ्कके भागी होते हैं, और फिर वे उन रोगोंकी चिकित्सानिमित्त एकेन्द्रियादि जीवोंकी हिंसा करते हैं । २३ बारहवें सूत्रका अवतरण, बारहवां सूत्र और छाया । २४ कर्मोदयजनित रोगोंकी निवृत्तिमें चिकित्साये समर्थ नहीं हैं । अतः रोगनिवृत्यर्थ प्राणिवघसे निष्पन्न चिकित्सा, विवेकियों के लिये हेय हैं । इस प्रकारकी चिकित्साविधि, जन्ममरणादिरूप महाभयकी कारण है । इस लिये किसी भी प्राणीका उपमर्दन नहीं करना चाहिये । २५ तेरहवां सूत्र और छाया । २६ अष्टविध कर्मके विनाशक वृतवादको समझो; सुनो। इस संसार में आत्मत कर्मके परिणामस्वरूप जीव उच्चनीचादि कुल में जन्म लेते २ क्रमिक मुनित्वको प्राप्त करते हैं । २७ चौदहवें सूत्र और अवतरण । २८ दीक्षाके लिये उद्युक्त मनुष्य के लिये माता-पिता आदि विलाप करते है, और आक्रोश वचन बोलते हैं । २९ पन्द्रहवें सूत्रका अवतरण, पन्द्रहवां सूत्र और छाया । ३० संयमाभिलाषी मनुष्य, दीक्षाके समय में रोते हुए अपने माता पिता आदिकी ओर बिल्कुल ध्यान नहीं देता । उसका इस प्रकारका व्यवहार उचित ही है, क्यों कि वह संसारकी वास्तविकतासे अभिज्ञ, नरक - जैसे गृहवासमें रह ही कैसे શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૩ पृष्ठाङ्क २६३-२६४ २६४ २६४-२६५ २६६ २६६-२६७ २६८ २६८-२७१ २७१ २७२ २७३
SR No.006303
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 03 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages719
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size37 MB
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