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________________ ६०६ आचाराङ्गसूत्रे __टीका-ये आस्रवाः अष्टविधं कर्मास्रवति यैस्ते आस्रवाः कर्मबन्धहेतवो विषयाः, ते परिस्रवाः परि समन्तात् स्रवति-अपगच्छति अष्टप्रकारं कर्म यैस्ते परिस्रवाः कर्मनिराहेतवः, विषयसुखाऽऽसक्तानां स्रक्चन्दनवनितादयो विषयाः कर्मबन्धजनकत्वादास्रवा भवन्ति, त एवं सेवनचिन्तनादिभिः संसारानन्तदुःखकरणतया प्रतीयमाना हेयोपादेयविवेकवतां तत्त्वज्ञानिनां वैराग्यजनकत्वात् परिस्रवा भवन्ति । यथा भरतस्य आस्रवाः परिस्रवरूपेण परिणता बभूवुः, यथा वा-समुद्रपालस्य, यथा वा नमिराजर्षेः । तथा चोक्तम् 'ये आस्रवाः' जो किसी अपेक्षासे कर्मबन्धके हेतु हैं 'ते परिस्रवाः' वे ही किसी दूसरी अपेक्षासे कौकी निर्जराके भी हेतु हैं। 'ये परिस्रवाः ' जो निर्जरा के हेतु हैं 'ते आस्रवाः ' वे आस्रव के भी हेतु हैं। ये अनास्रवाः' जो आस्रवसे भिन्न हैं 'ते अपरिस्रवाः' वे कर्मबन्ध के भी कारण हैं। ये अपरिस्रवाः' जो कर्मबन्धके कारण हैं 'ते अनास्रवा' वे कर्मबन्ध के कारण नहीं भी हैं। (१) 'ये आस्रवास्ते परिस्रवाः ' ज्ञानावरणादिक आठ प्रकारके कर्म जिनके द्वारा आते हैं ऐसे कर्मबन्ध के कारणरूप जो विषयकषायादिक हैं उन्हें आस्रव कहते हैं। तथा जिनके द्वारा अष्ट प्रकारके कर्म सर्वथा निर्जरित होते हैं, ऐसे निर्जरा के कारण जो तपसंयमादिक हैं उन्हें परिस्रवकहते हैं। विषयसुखों में आसक्त मनवालेके लिये माला चन्दन एवं वनितादिक जो पांच इन्द्रियों के विषय हैं वे कर्मबन्धके कारण होनेसे आस्रव होते हैं, कारण कि वह उनके सेवनसे अपने को परमसुखी मानता है, एवं उन्हें 'ये आस्रवाः 'ओमपेक्षाथी भनाउछ 'ते परिस्रवाः ' ते जो भी अपेक्षा नी निराना तु छ. 'ये परिस्रवाः '२ निराना हेतु छ 'ते आस्रवाः' ते यासवना ५९ हेतु छ. 'ये अनास्रवाः' मासवथा भिन्न छ 'ते अपरिस्रवाः' ते ४५ घना ५ ॥२९छ. 'ये अपरिस्रवाः' माना ॥२६५ छ 'ते अनास्रवाः' ते 'धन। ४।२९ हाता या नथी. (१) 'ये आस्रवास्ते परिस्रवाः' ज्ञान॥१२॥ २४ ॥२॥ ४ २ ॥२॥ આવે છે એવા કર્મબંધના કારણરૂપ જે વિષયકષાયાદિક છે તેને આસવ કહે છે. તથા જે દ્વારા આઠ પ્રકારના કર્મ સર્વથા નિર્જરિત થાય છે, એવા નિજેરાના જે કારણ છે તેને પરિસવ કહે છે. વિષયસુખમાં આસક્તમનવાળાને માળા, ચંદન અને સ્ત્રી આદિક જે પાંચ ઈન્દ્રિયોના વિષય છે તે કર્મબન્ધનાં કારણ હોવાથી આસવ થાય છે, કારણ કે તે તેના સેવનથી પિતાને ઘણે સુખી માને છે, અને તેને શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006302
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages775
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size41 MB
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