________________
अध्य० २. उ. ५
२८९
मुचितम्, यतश्चानुकूले वस्तुनि रागः प्रतिकूले द्वेषश्च सब्जायते एवञ्च रागद्वेषयोरवश्यंभावान्मूर्च्छा, सैषा परिग्रहः 'मुच्छा परिग्गहो बुत्तों' इति वचनात्, तत्सद्भावे च कर्मबन्ध इति कथं संयमोपकरणस्य न परिग्रहत्वमिति चेदुच्यते - धर्मोपकरणे मुनीनां ' ममेद ' - मिति न मोहो भवति । उक्तञ्च–
66 अवि अपणोऽवि देहमि नायरंति ममाइयं " इति । (दश. अ. ६ गा. २२) ठीक नहीं है, कारण कि यह भी परिग्रह ही है, और परिग्रह का त्याग किये बिना सर्वथा संयमाराधकता होती नहीं है । परिग्रहरूपता इनमें इसलिये है कि अनुकूल इनकी प्राप्ति में प्राप्तकर्ता को हर्ष, और प्रतिकूल प्राप्ति में पानेवाले को द्वेष होता है। जहां पर राग और द्वेष है वहां पर मूर्छा है, और मूर्छा का होना ही परिग्रह है । " मुच्छा परिग्गहो कुत्तो" मूर्छा ही परिग्रह है, ऐसा भगवान का कथन है, जहां इसका सद्भाव है वहां कर्मबन्ध अवश्य है, अतः वस्त्रपात्रादिक उपकरण को परिग्रह क्यों नहीं कहा गया है ? |
उत्तर- - सामान्यतया वस्त्रपात्रादिकों में परिग्रहता का हम निषेध नहीं करते हैं, किन्तु जो संयम के उपकारक हैं वे परिग्रहरूप नहीं है । यह एक विशेष विधि है, कारण कि मुनियों को उनमें " मम इदं " " 'यह मेरे हैं ' इस प्रकार की ममत्वभावरूप मूर्छा नहीं होती है। कहा भी है"अवि अप्पणोवि देहंमि, नायरंति ममाइयं" इति । (दश. अ. ६ गा. २२) કારણ કે તે પણ પરિગ્રહ જ છે. અને પરિગ્રહના ત્યાગ કર્યા વિના સર્વથા સંયુમારાધકતા થતી નથી. પરિગ્રહરૂપતા તેમાં એ માટે છે કે અનુકૂળ તેની પ્રાપ્તિમાં પ્રાપ્તકર્તા ને હર્ષોં અને પ્રતિકૂળ પ્રાપ્તિમાં લેનારને દ્વેષ થાય છે, જે જગ્યાએ રાગ અને દ્વેષ છે ત્યાં મૂર્છા છે, અને મૂર્છાનુ હોવુ તે પરિગ્રહ છે. 'मुच्छा परिहो तो ” भूर्छा से न परियड छे, मेवु लगवाननु उथन छे, न्यां तेनो સદ્ભાવ છે ત્યાં કર્મબંધ અવશ્ય છે, માટે વજ્રપાત્રાદિક ઉપકરણને પરિગ્રહ કેમ માનેલ નથી ?
66
"
ઉત્તર——સામાન્ય રીતે વજ્રપાત્રાદિકોમાં પરિગ્રહતાના અમે નિષેધ કરતા નથી. જે સંયમના ઉપકારક છે તે પરિગ્રહરૂપ નથી. એ એક વિશેષ વિધિ છે, आरए } भुनियोने तेमां “ मम इदं " थे भारा छे, थे अारनी भभत्व लाव३य भूर्छा थती नथी, ह्युं पगु छे
66
'अवि अपणो वि देहमि नायरंति ममाइयं " इति (हश. अ. ६ . २२)
३७
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨