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________________ २८३ - अध्य० २. उ. ५ ननु शाखे नानाविधाभिग्रहरूपा प्रतिज्ञाऽभिहिताऽत्र तु 'मुनिरपतिज्ञो भवे'. दिति कथितं तत्कथम् ? इत्यत्राह-द्विधेति, अत्र पक्षे द्विधेतिच्छाया, द्विधा द्विप्रकारेण रागेण द्वेषेण च प्रतिज्ञां छित्त्वा अकृत्वा नियाति-नियतं याति-संयमे विहरति, रागद्वेषवशेन मुनिरनेषणीयमपि गृह्णाति भुङ्क्ते चेति रागद्वेषवती प्रतिज्ञा मुनिना न विधेयेति भावः ॥ मू० ४॥ आचारविशेषं पुनरपि दर्शयति-' वत्थं ' इत्यादि। मूलम्-वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं उग्गहं च कडासणं एएसु चेव जाएज्जा ॥ सू० ५॥ छाया-वस्त्रं पतद्ग्रहं कम्बलं पादपोञ्छनमवग्रहं च कटासनमेतेषु चैव याचयेत् ॥ सू० ५॥ मुक्ति के लाभ से वंचित माना गया है। प्रश्न-शास्त्र में अनेक प्रकार की अभिग्रहरूप प्रतिज्ञाओं का कथन किया गया है, फिर यहां पर “मुनिरप्रतिज्ञो भवेत् " मुनि को प्रतिज्ञासंपन्न नहीं होना चाहिये, यह कैसे कहा गया है । ___ उत्तर-राग और द्वेष से जो प्रतिज्ञा की जाती है वह संयमी मुनि के लिये उचित नहीं है। तभी वह अपने संयम मार्ग में विचर सकता है । रोग और द्वेष के वश होकर की गई प्रतिज्ञा से मुनि अनेषणीय भी आहारादिक को ग्रहण कर लेता है, इसलिये रागद्वेषवाली प्रतिज्ञाओं के करने का निषेध किया गया है। यह भाव “दुहओ छेत्ता नियाइ" इन पदों से प्रकट होता है अतः इस प्रकार की प्रतिज्ञा मुनिजनों को नहीं करनी चाहिये ॥ सू० ४॥ અભાવમાં આ પૂર્વોક્તગુણસંપન્ન પણ અણગાર મુક્તિના લાભથી વંચિત માનેલ છે. प्रश्न-खमा भने प्रा२नी ममियड३५ प्रतिज्ञानु ४थन ४२ छ, पणी ॥ ४00 “ मुनिरप्रतिज्ञो भवेत् " भुनिये प्रतिज्ञासपन्न नडियन જોઈએ, એ કેમ કહેવામાં આવેલ છે? ઉત્તર–રાગ અને દ્વેષથી જે પ્રતિજ્ઞા કરવામાં આવે છે, સંયમી મુનિએ તેવી પ્રતિજ્ઞા નહિ કરવી જોઈએ. તે જ તે પિતાના સંયમ માર્ગમાં વિચરી શકે છે. રાગ અને દ્વેષથી કરેલી પ્રતિજ્ઞાથી મુનિ અનેષણય પણ આહારદિક ગ્રહણ કરી લે છે. માટે રાગ દ્વેષવાળી પ્રતિજ્ઞાઓ કરવાને નિષેધ કરેલ છે. આ ભાવ " दुहओ छेत्ता नियाइ ” को पहोथी प्रगट थाय छे. भाट मावा प्रा२नी प्रतिज्ञा મુનિજનેએ નહિ કરવી જોઈએ. એ સૂત્ર ૪ છે. શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006302
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages775
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size41 MB
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