SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारागसूत्रे परम्परसूत्रसम्बन्धस्तु-' से आयबले' इत्यादिना, स्वसमानार्थमात्मवलादि-द्वारा दण्डसमारम्भो न खया कर्तव्य इति । उच्चगोत्रोत्पत्त्या मानं, नीचगोत्रोत्पत्त्या चापमानं ज्ञात्वा हर्ष-क्रोधौ त्वया न विधेयौ, यतस्तौ मानापमानौ वहुषु जन्मसु प्राप्तपूर्वाविति दर्शयति-" से असइं" इत्यादि। मूलम् से असई उच्चागोए,असई नीआगोए, नो हीणे, नो अइरित्ते, नोऽपीहए, इयपरिसंखाय को गोयावाई, कोमाणावाई, कंसि वा एगे गिज्झे, तम्हा पंडिए नो हरिसे नो कुज्झे॥सू० १॥ ___ छाया-सोऽसकृदुच्चैर्गोत्रेऽसकुन्नीचैर्गोत्रे न हीनो नातिरिक्तः, नो ईहेतापि, इति परिसंख्याय को गोत्रवादी को मानवादी, कस्मिन् वैकस्मिन् गृध्येत् , तस्मात्पण्डितो न हृष्येत् न क्रुध्येत् ॥ मू० १॥ उत्पत्ति के अभिमानादिकों में जिस तरह से न फँसे इस प्रकार से अपनी प्रवृत्ति कर। __ 'से आयबले' इत्यादि परम्परासूत्र के साथ भी संबंध है, जिससे शिष्य को संबोधन करते हुए आचार्य इस बात का उपदेश देते हैं कि अपने मान के लिये आत्मबल आदि द्वारा तुझे दण्डसमारंभ नहीं करना चाहिये। नीचे के सूत्र का अवतरण करने के लिये सूत्रकार शिष्य से कहते हैं कि-हे शिष्य ! उच्चगोत्र में उत्पत्ति से मान और नीच गोत्र में जन्म लेने से अपमान का विचार कर हर्ष और क्रोध करना तुझे योग्य नहीं है, क्योंकि कर्म के प्रभाव से तूने पूर्व के अनेक भवों में इन्हें प्राप्त किया है। यही बात प्रकट की जाती है-" से असइं” इत्यादि। અભિમાનદિમાં જેવી રીતે ન ફસે તેવી પ્રવૃત્તિ પિતાની કર. ‘से आयबले 'त्याहि ५२५रासूत्र साथे पण समय छ २थी शिष्यने સંબોધન કરતાં આચાર્ય એ વાતનો ઉપદેશ આપે છે કે પિતાના માન માટે આત્મબલ આદિ દ્વારા તારે દંડસમારંભ ન કરે જોઈએ. નીચેના સૂત્રનું અવતરણ કરવા માટે સૂત્રકાર શિષ્યને કહે છે કે- હે શિષ્ય ! ઉચ્ચ ગેત્રમાં ઉત્પત્તિથી માન, અને નીચ ગેત્રમાં જન્મ લેવાથી અપમાનને વિચાર કરી હર્ષ અને ક્રોધ કરે તને એગ્ય નથી. કારણ કે કર્મના પ્રભાવથી તેં પૂર્વના અનેક ભામાં તે પ્રાપ્ત કર્યા છે એ વાત પ્રગટ ४२वामां आवे छ-' से असई' त्याहि. શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૨
SR No.006302
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1957
Total Pages775
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy