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आचारचिन्तामणि-टीकाअध्य.१ उ.१ सू.५ आत्मसिद्धिः सात्मकं न भवति तत्रेष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्ती न भवतः, यथा घट इति । तथा च परशरीरे प्रवृत्तिनिवृत्ती दृश्येते तस्मात् तत् सात्मकम् , इति ।
यद्वा-शरीरं सकर्तृकं, आदिमत्पतिनियताकारत्वात् , यत् पुनरकर्तृकं तद् आदिमत्प्रतिनियताकारमपि न भवति, यथा-अभ्रविकारः। यश्च कर्ता शरीरस्य, स आत्मा । मेर्वादावनैकान्तिकत्ववारणायादिमत्त्वविशेषणम् ।
यद्वा-अस्तीन्द्रियाणामधिष्ठाता-आत्मा, तत्रानुमानप्रयोगश्वेत्थम्
नहीं होता उसमें इष्ट-अनिष्ट की प्रवृत्ति-निवृत्ति भी नहीं होती, जैसे घट । दूसरे के शरीर में भी प्रवृत्ति-निवृत्ति देखी जाती है अतः वह सात्मक है।
(२) शरीर सकर्तृक (कर्ता से युक्त ) है, क्यों कि वह आदिवाला और नियत आकार वाला है, जैसे घट । जो सकर्तृक नहीं होता वह आदि वाला और नियत आकार वाला नहीं होता, जैसे मेघों का विकार (बनावट)। शरीर का जो कर्ता है वही आत्मा है। यहाँ नियत आकार वाले सुमेरु आदि से व्यभिचार ( हेतु हो और साध्य न हो) निवारण करने के लिए ' आदि वाला ' विशेषण लगाया गया है।
अथवा इन्द्रियोंका अधिष्ठाता आत्मा है, इस विषय में अनुमान का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए :
(मात्माथीयुत) नथी, तभ टि-मनिष्टनी प्रवृत्ति-निवृत्ति ५ यती नथी, रेभઘટ, બીજાના શરીરમાં પણ પ્રવૃત્તિ-નિવૃત્તિ જોવામાં આવે છે, તેથી તે સાત્મક છે.
(२) शरी२ सt (तथी युत) छे. भ? ते माहिवाणु अने नियत આકાર વાળું છે; જેમ ઘટ. જે સકર્તક નથી હોતાં તે આદિવાળાં અને નિયમ આકાર વાળાં નથી હોતાં જેમ મેઘને વિકાર (બનાવટ). શરીરનો જે કર્તા છે તે આત્મા છે. અહિં નિયત આકારવાળા સુમેરુ આદિથી વ્યભિચાર (હેતુ હોય અને સાધ્ય ન હેય) નિવારણ કરવા માટે “આદિવાળા” વિશેષણ લગાવ્યું છે.
અથવા-ઈન્દ્રિયને અધિષ્ઠાતા આત્મા છે. આ વિષયમાં અનુમાનને પ્રયોગ આ પ્રમાણે કરવું જોઈએ
શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૧