SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारचिन्तामणि-टीका अध्य.१ उ.१ मू.४ संज्ञा २०३ सोचा, तंजहा-पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, जाव अण्णयरीओ दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि, एवमेगेसि णायं भवइ-अस्थि मे आया ओववाइए, जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा संचरइ, सव्वाओ दिसाओ सब्बाओ अणुदिसाओ जो आगओ अणुसंचरइ सोऽहं । सू० ४ ॥ (छाया) अथ यत् पुनर्जानीयात्-सहसंमत्या, परव्याकरणेन, अन्येपामन्तिके वा श्रुत्वा, तद्यथा-पूर्वस्या दिशाया आगतोऽहमस्मि यावत् अन्यतरस्या दिशाया अनुदिशाया वा आगतोऽहमस्मि । एवमेकेषां ज्ञातं भवति-अस्ति मे आत्मा औपपातिकः, योऽस्या दिशाया अनुदिशाया वा अनुसंचरति, सर्वस्या दिशायाः सर्वस्या अनुदिशाया य आगतः अनुसंचरति सोऽहम् ॥ सू०४॥ ‘से जं पुण' इति । 'से' इत्यव्ययं मागधभाषायामथशब्दार्थकम् । 'अथ' इति, अनेन 'नो सन्ना भवइ ' इति द्रव्यदिग्ज्ञानाभावं 'नो णाय भवइ' इति भावदिग्ज्ञानाभावं च प्रदर्श्य तज्ज्ञानपारम्भ इति घोत्यते । से आया हूँ ( यावत् ) अन्यतर दिशा से अथवा विदिशा से मैं आया हूँ। इस प्रकार कितनेक जीवों को ज्ञान होता है कि-मेरा आत्मा औपपातिक (जन्म लेने वाला) है; जो इस दिशा से अथवा अनुदिशा से संचार करता है, सभी दिशाओं से, सभी अनुदिशाओं से आया हुआ जो आत्मा भ्रमण करता है, वह मैं हूँ। ( सू० ४) टीकार्थ-मागधी भाषा में 'से' अव्यय 'अर्थ' शब्द के अर्थ में है। यहाँ 'अथ' शब्द से यह प्रकट किया गया है कि-पहले के सूत्रोंमें 'नो सन्ना भवइ' इत्यादि कहकर द्रव्यदिशा के ज्ञानका निषेध करके, और 'नो णायं भवः' इत्यादि कह कर भावदिशासम्बन्धी ज्ञान का निषेध करके अब इस ज्ञान की उत्पत्ति का प्रकार प्रदर्शित करते हैंપૂર્વ દિશાથી આવ્યું છું, યાવત્ બીજી દિશાએથી અથવા વિદિશાએથી હું આ છું, આ પ્રમાણે કેટલાક જીવને જ્ઞાન થાય છે કે-મારે આત્મા ઔપપાતિક (જન્મ લેવાવાળા) છે; જે આ દિશાથી અથવા અનુદિશાથી સંચાર કરે છે. સર્વ દિશાઓથી, સર્વ અનુદિશાઓથી, આવેલ જે આત્મા ભ્રમણ કરે છે તે હું છું (સૂ. ૪) ટીકર્થ–માગધી ભાષામાં બેસે અવ્યય “અથ,” શબ્દના અર્થમાં છે. અહિં 'A' A७४थी से प्रगट ज्यु छ -प्रथमना सूत्रोमा 'नो सन्ना भवई' त्याहिहीन द्रव्याहिशाना शानन निष५ ४शन भने 'नो णायं भवइ-पत्याहि डीन भावामधी જ્ઞાનને નિષેધ કરીને હવે તે જ્ઞાનની ઉત્પત્તિને પ્રકાર પ્રદર્શિત કરે છે– શ્રી આચારાંગ સૂત્ર : ૧
SR No.006301
Book TitleAgam 01 Ang 01 Aacharang Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages781
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy