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उत्तराध्ययन सूज :
मंज-गाथायें
तीर्थंकर-वाणी के अनन्त अर्थ एवम् अनन्त भाव होते हैं। सृष्टि में यह विशेषता केवल तीर्थंकर-प्रभु की वाणी में ही उपलब्ध होती है। अन्य किसी भी वाणी में नहीं। प्रभु-वाणी के अनेक अर्थ एक साथ अनेक जीवों के संशयों का समाधान करने में सक्षम होते हैं। एक ही समय में प्रभु-वाणी को अनेक भव्य जीव अपनी-अपनी दृष्टि से श्रवण करते हैं। उसी समय उसी वाणी से सभी जीवों की शंकाओं का समाधान होता है। अत: तीर्थंकर-प्रभु की वाणी सभी सम्यक्त्वी जीवों के प्रश्नों का समाधान एक साथ करती है।
आगम प्रभु-वाणी के ही लिखित रूप हैं। अत: आगम-गाथाओं में भी वही विशिष्टता या अतिशय या सामर्थ्य उपलब्ध है, जो तीर्थंकर-प्रभु की उच्चारण-बेला में थी। यहां हम प्रभु-वाणी की उसी दिव्य सामर्थ्य की
ओर संकेत कर रहे हैं, जिस का साक्षात्कार अनेक पुरातन एवम् पूज्य मुनिराजों द्वारा किया गया है।
'उत्तराध्ययन' की गाथाओं में भी उस दिव्य सामर्थ्य ने आकार ग्रहण किया है। अतः आगम की प्रत्येक गाथा अपने-आप में एक परम पावन मंत्र है। 'मंत्र' शब्द का अर्थ 'कार्य-सिद्धि का उपाय' भी है। श्रद्धा व एकाग्रतापूर्वक स्मरण या जप करने से कार्य-सिद्धि का उपाय सिद्ध होता है। उपाय सिद्ध हो जाने पर कार्य स्वयमेव सिद्ध हो जाता है। कर्मों के उदय से मनुष्य के जीवन में अनेक समस्याएं उत्पन्न होती हैं। समस्या ग्रस्त मनुष्य समाधान हेतु इतस्ततः भ्रमित होता है। भ्रमित होने से समस्याएं और अधिक उग्र हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में उपयुक्त यही है कि मिथ्यात्व के शिकंजे में न फंस कर व्यक्ति तीर्थंकर-प्रभु की वाणी का अवलम्बन ले। आगम-गाथाओं का पावन स्मरण व जप करे। इस से उस के कर्मों का क्षय
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उत्तराध्ययन सूत्र