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________________ इन्द्र ने प्रभु-भक्ति को अहं-रहित करने के लिये कैलाश पर्वत जितने ऊंचे चौंसठ हाथियों व सभी के आठ-आठ दांतों पर नृत्यलीन देवबालाओं की विकुर्वणा की व विशाल ऋद्धि सहित दशार्णभद्र राजा के सामने आकाश से उतरे। इन्द्र वैभव के सम्मुख राजा का ऐश्वर्य फीका पड़ गया। दोनों समवशरण में पहुंचे। राजा ने प्रभु-सान्निध्य में श्रमण-दीक्षा का गौरव प्राप्त किया। इन्द्र आये। उनके चरणों में झुक गये। बोले-मैं आप की समानता नहीं कर सकता। राजा दशार्णभद्र ने साधना की। कैवल्य पाया। सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए। (अध्ययन-18/44) प्रत्येकबूद्ध करकण्डू प्रत्येकबुद्ध करकण्डू कलिंग नरेश दधिवाहन व महारानी पद्मावती के पुत्र थे। जब वे गर्भ में थे तो माता गर्भावस्था में उत्पन्न दोहद पूर्ण करने राजा के साथ वन-विहार को गईं। उनका पट्टहस्ति मदमत्त हो दौड़ने लगा। महाराज ने आगामी वृक्ष की शाखायें महारानी से मजबूती के साथ पकड़ने को कहा ताकि हाथी नीचे से निकल जाये और वे बच जायें। महाराज ने शाखा पकड़ ली परन्तु महारानी न पकड़ सकीं। रानी हाथी पर ही रह गयीं। आगे एक जलाशय के पास हाथी रुका। वे उतरीं। जंगल में राह ढूंढ़ते उन्होंने एक तापस से पथ-ज्ञान पाया। तापस ने उन्हें भद्रपुर तक पहुंचाकर दन्तपुर होते हुए राजधानी चम्पानगरी पहुंचने को कहा। दन्तपुर पहुंच कर उन्हें जैन साध्वियों के दर्शन का सौभाग्य मिला। दर्शन से वैराग्य मिला। वैराग्य के आवेग में अपनी गर्भावस्था भूल कर उन्होंने दीक्षा ली। प्रवर्तिनी आर्या को पता चला तो उन्हें खेद हुआ। अन्तत: एक श्रमणोपासिका के घर प्रसवव्यवस्था करवा दी। वहां करकण्डू जन्मे। उन्हें वे श्मशान में एक घास-फूस के बिछौने पर लिटा छिप गईं। श्मशान रक्षक चाण्डाल ने शिशु को देखा तो देव-प्रसाद-रूप में शिशु स्वीकार कर लिया। साध्वियां निश्चिंत लौटीं। विमाता का दूध पीने से उसे सूखी खुजली हो गई। इस कारण शिशु को करकण्डू नाम मिला। करकण्डू बड़ा होकर श्मशान-रक्षा करने लगा। एक बार श्मशान में ध्यान हेतु आये दो मुनियों की वार्ता से उसने जाना कि 'इस बांस के वृक्ष का दण्ड अपने पास परिशिष्ट ८६३
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
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