SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 884
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दाह-ज्वर का शमन हो गया। पुत्र को राज-सिंहासन दे निर्ग्रन्थ बन गये। देवराज इन्द्र (शकेन्द्र) ने उनके वैराग्य की परख वार्ता द्वारा की। उन्होंने अनेक प्रश्न पूछे। अन्ततः वार्ता में सांसारिकता पर सम्यक् दृष्टि की और श्रमण संस्कृति की विजय हुई। चार प्रत्येक बुद्धों में से एक नमि राजर्षि ने स्व-पर कल्याण किया। वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए। सचमुच! सम्यक् बोध मिल जाये तो परम कल्याण दूर नहीं रह जाता। (अध्ययन-9) हरिकेशबल मुनि मृतगंगा नदी के तट पर स्थित चाण्डाल बस्ती में हरिकेश गोत्रीय 'बलकोट्ट' नामक चाण्डाल की पत्नी गांधारी के गर्भ से हरिकेशबल नामक कुरूप बालक ने जन्म लिया। बड़ा होने पर कुरूपता व क्रोधी स्वभाव के कारण वह सबका उपेक्षा-पात्र बना। एक उत्सव में बच्चों को खेलते देखते हुए वह एक ओर बैठा था। देखा कि एक विषधर निकला। सबने उसे मार दिया। दूसरा (दुमुही या अलसिया नामक) विषरहित सर्प निकला तो उसे जीवित ही दूर छोड़ दिया। हरिकेशबल ने सोचा-'सर्प का वास्तविक शत्रु विष है और मेरा क्रोध।' तब उसे जातिस्मरण ज्ञान हुआ। ज्ञान से जाना कि रूप व जाति-मद के कारण वह निम्न कुल, देह व स्वभाव का पात्र बना। वैराग्य जागा। दीक्षा ली। वाराणसी में उनकी साधना से अभिभूत तिन्दुक यक्ष उनकी सेवा में रहने लगा। यक्षमन्दिर में पूजा हेतु आई राजकुमारी भद्रा ने ध्यानस्थ मुनि की कुरूपता से घृणापूर्वक उन पर थूक दिया। यक्ष राजकुमारी की देह में प्रविष्ट हुआ। वह बीमार हो गई। असफल उपचारों से चिंतित राजा कौशलिक को यक्ष ने सत्य बताया। कहा कि मुनि से विवाह करने पर ही वह स्वस्थ होगी। राजा उसे लेकर मुनिश्री के चरणों में आया। सम्यक्-चारित्र-संपन्न मुनिराज ने कहा-संसार की सभी स्त्रियां मेरी माता-बहिन हैं। राजकुमारी स्वस्थ हुई। मुनि-त्यक्त राजकुमारी का विवाह राजपुरोहित रुद्रदेव ब्राह्मण से कर दिया गया। ब्राह्मण ने विशाल यज्ञ किया। मासखमण के पारणे हेतु मुनिराज उसी यज्ञशाला में पहुंचे। वहां ब्राह्मणों ने अपमान करते हुए उन्हें खदेड़ने का प्रयास किया तो यक्ष फिर कुपित हो गया। उस ने मुनि का अपमान करने वालों ८५४ उत्तराध्ययन सूत्र A
SR No.006300
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year1999
Total Pages922
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size125 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy