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अध्ययन-सार :
मनुष्यत्व, धर्म-श्रमण, धर्म-श्रद्धा व संयम-पराक्रम प्राणियों के लिए दुर्लभ हैं। कर्मों के अनुरूप जीव विभिन्न गतियों में उत्पन्न होता है। देव, नारकी, असुर, कीट-पतंग आदि बनते हुए वह लोक में भ्रमण करता है। त्रास भोगता है। सुख-दु:ख भोगते हुए उसे संसार निवृत्ति की इच्छा नहीं होती। अति दीर्घ काल पश्चात् मनुष्य जन्म मिलता है। मनुष्य-जन्म, धर्म-श्रवण, श्रद्धा व संयम में पुरुषार्थ उत्तरोत्तर दुर्लभ होते हैं। ये दुर्लभ अंग प्राप्त करने वाला मनुष्य कर्म-रज दूर कर देता है। सरलता से शुद्धि, शुद्धि से धर्म और धर्म से निर्वाण मिलता है। शील-व्रत-पाल कर जीव समृद्धिशाली दीर्घायु देव बनता है। देवलोक से च्यव कर वह दस प्रकार की भोग-सामग्री से युक्त मनुष्य बनता है।, क्षेत्र, गृह, पशु व दास; ये चार काम-स्कन्ध पाता है। सौंदर्य व सामर्थ्य पाता है। सुख भोग कर निर्मल बोधि पाता है। जो मनुष्य चार अंगों को दुर्लभ जान सजग रहता है, वह संयम व तप से कर्म-निर्जरा कर शाश्वत सिद्धि प्राप्त करता है।
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उत्तराध्ययन सूत्र